पेड़ों को काटना महान या उन्हे पूजना?

आज संस्कृति और परम्पराओं के कोलाहल में सभी पर्यावरण से नाता तोड़ बैठें हैं। क्रिसमस पर्व पर वृक्षों का कटना इसी का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है।

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क्रिसमस के अवसर पर विश्वभर में करोड़ों पेड़ काटे जाते हैं और काटने वाले ही पर्यावरण बचाओ का नैरा भी देते हैं।(Pixabay)

पर्यावरण, जिसके लिए यह पूरा विश्व हताश है, कई बड़े देश करोड़ों खर्च कर के इस मुद्दे पर चर्चा करते हैं। पेड़ न काटने और ज़्यादा से ज़्यादा पेड़ उगाने की जहाँ बातें होती हैं। वह सभी एक त्यौहार पर आकर चुप हो जाते हैं। क्योंकि धर्म से जुड़ी बातें कहना, धर्म के खिलाफ कहना माना जाता है। आज हर किसी को पशुओं लगाव होता है किन्तु थैंक्सगिविंग के अवसर पर टर्की को पका कर खाना किस तरह के प्यार की निशानी है?

किसी पंथ या धर्म से जुड़े रीतियों पर सवाल खड़ा करना अच्छी बात नहीं है, किन्तु विश्व भर में पर्यावरण को बचाने का ढिंढोरा पीटकर क्रिसमस के लिए पेड़ काट देना यह बात हज़म नहीं होती। यह विषय इसलिए भी महत्वपूर्ण और चिंता में डालने वाली है क्योंकि हर साल केवल अमरीका में 1.15 करोड़ से ज़्यादा पेड़ क्रिसमस त्यौहार की रौनक बढ़ाने के लिए काटे जाते हैं। एक और शोध में यह भी पता चला है कि 88% अमरीकी टर्की पक्षी को थैंक्सगिविंग के दिन खाते हैं, विस्तार में देखें तो लगभग 40 लाख टर्की थैंक्सगिविंग पर, 22 लाख टर्की क्रिसमस पर और बाकि जानवरों की गिनती की जाए तो परेशान कर देने वाले आंकड़े सामने आएंगे।

यह दोहरा चरित्र क्यों? एक तरफ पर्यावरण और जानवरों से प्यार की बात करना और त्योहारों के कोलाहल में भुला देना कहाँ तक जायज़ है?

भारतीय संस्कृति में पशु एवं वृक्षों को पूजने की मान्यता है।(Pixabay)

अगर बात पर्यावरण की उठी ही है तो विश्व को भारतीय संस्कृति और परम्पराओं से भी कुछ सीखना और समझना चाहिए। 25 दिसम्बर को जिस दिन विश्व क्रिसमस के रंग में झूम रहा होता है उसी दिन भारत में तुलसी पूजन का भी आयोजन किया जाता है। केवल 25 दिसम्बर ही नहीं, वट सावित्री के अवसर पर भी विवाहित महिलाऐं बरगद के पेड़ को पूजती हैं। भारत एवं खासकर हिन्दू धर्म में गौ को माता के रूप में देखा जाता है। पशु एवं हर साँस ले रहे जीव में भगवान का वास होता है, यह ज्ञान गीता ने भी दिया है।

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भारतीय संस्कृति को आज अपनों से ही जूझना पड़ रहा है। क्योंकि उदारवादी सोच पर पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव कुछ अधिक हो रहा है। गीता महोत्सव से अधिक क्रिसमस पर बार में पैसे उड़ाने का चलन बढ़ रहा है। आज अधिकांश युवाओं को यह तक नहीं पता होगा कि जिस दिन क्रिसमस को मनाया जाता है उसी दिन गीता जयंती भी मनाई जाती है। और इसका दोष किसी सरकार या समाज का नहीं हम सब नागरिकों का है। जिन्होंने गीता से ज़्यादा मोल लंपटता को दिया।

(हमारा प्रयास न तो किसी धर्म को ठेस पहुँचाने का है और न ही उसकी निंदा करने का।)

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