सनातन धर्म में साधुओं को सहनशील, धीर एवं तप में लीन ही देखा गया है। उन्हें देश में क्या उठा-पटक चल रही है उससे कोई मतलब नहीं रहता। सनातन धर्म में साधु और संत परम आदरणीय माने गए हैं। यह वही समाज है जिनकी बदौलत आज भी एक हिन्दू अपने वेदों और ग्रंथों के ज्ञान पर इतराता है। उन्होंने ने ही दुनिया में सनातन धर्म के प्रचार को सुचारु रूप से आगे बढ़ाया है। इस्लामिक या ईसाई कट्टरवादियों के विपरीत संत समाज ने कभी हिंसा का प्रयोग नहीं किया और न ही करने की सीख दी। किन्तु जब किसी अपराध को आप अपने सामने लगातार होते हुए देखते हैं, तब वह सहनशीलता भी रौद्र रूप ले लेती है।
कुछ ऐसा ही हुआ था वर्ष 1966 में, जब देश में गौ-हत्या को रोकने के लिए लाखों साधुओं ने देश भर में एक आंदोलन को जन्म दिया था। एक ऐसा आंदोलन जिसमें न तो अपना स्वार्थ था और न ही पैसों का मोह। यह आंदोलन उस जीव के लिए था जिसे हिन्दू धर्म में माँ स्थान प्राप्त है। ‘गाय’, जिनके दूध से बच्चे भविष्य की चुनौतियों के लिए तैयार होते हैं, ऐसी कई औषधीय तत्त्व हैं जो के गाय के दूध में उपलब्ध होती हैं और यही कारण है की हम उन्हें गौ माता कह कर पुकारते हैं।
ईसाई धर्म और इस्लाम में गौ-हत्या और उनके माँस का सेवन आज भी किया जाता है, किन्तु हिन्दू समाज के साधुओं ने 1966 में ही गौ-हत्या के खिलाफ कानून लाने की मांग की थी और इस वजह से ही उन्होंने संसद पर कूंच किया था। जिस वजह से उनपर गोलियां भी चलीं और कई साधुओं को अपने प्राण भी न्यौछावर करने पड़े थे। उस समय की भारत की प्रधानमंत्री थीं इंदिरा गांधी जिन्हे आज भी आपातकाल के लिए याद किया जाता है।
पूर्ण वृत्तांत
उस समय संत समाज एवं हिन्दू समाज में स्वामी करपात्रीजी महाराज को पूजनीय माना जाता था। आज भी उन्हें गौरक्षा के लिए अपने योगदान और सनातन धर्म की उन्नति के लिए जाना जाता है। वह धीर एवं सहनशील संत थे, किन्तु जब उन्होनें गौ-हत्या जैसे अपराध पर लगाम न लगते देखा, तब उनकी सहनशीलता ने भी जवाब दे दिया। तब उन्होंने सरकार से गौ-हत्या के खिलाफ कानून बनाने की मांग की। उनके साथ लाखों साधु व संतों ने भी इस कानून के लिए मांग की और सभी ने सरकार को यह चेतावनी दिया कि यदि यह कानून नहीं लाया गया तो वह संसद का घेराव करेंगे।
इसी प्रक्रिया में लाखों संतों ने दिनांक 7 नवम्बर 1966 को इस महा-अभियान को शुरू किया था। इस अभियान का नेतृत्व कर रहे थे शंकराचार्य निरंजन देव तीर्थ जी, स्वामी करपात्रीजी महाराज और रामचन्द्र वीर। यह सभी आमरण अनशन पर बैठ गए थे।
जब सरकार पर इस आंदोलन का कोई असर न होते हुए देखा तब संसद पर कूच करने का निर्णय लिया गया। इस आंदोलन को करपात्रीजी महाराज ने चांदनी चौक से प्रारम्भ किया। इस आंदोलन को जगन्नाथपुरी, ज्योतिष पीठ व द्वारका पीठ के शंकराचार्य, वल्लभ संप्रदाय की सातों पीठों के पीठाधिपति, रामानुज संप्रदाय, माधव संप्रदाय, रामानंदाचार्य, आर्य समाज, नाथ संप्रदाय, जैन, बौद्ध व सिख समाज के प्रतिनिधियों का समर्थन प्राप्त था और सभी स्वामी करपात्रीजी महाराज के नेतृत्व में साथ जुलूस में थे। उस जुलूस में हज़ारों की संख्या में नागा साधु, सिखों के निहंग और लाखों गौरक्षकों ने पैदल यात्रा को प्रारम्भ किया। वह जिस सड़क पर चल रहे थे उसपर स्थानीय लोग अपने घरों से पुष्पवर्षा कर रहे थे। इस दृश्य को देखने वालों का कहना है की संसद भवन के गेट से चांदनी चौक तक केवल सर ही सर दिखाई दे रहे थे। इनमें से केवल 10 से 20 हजार महिलाऐं ही शामिल थीं। वह दिन था गोपाष्टमी का। दोपहर 1 बजे यह जुलूस संसद पर पहुंचा। सभी संतों और गौरक्षकों ने संसद को घेर लिया और गौ-हत्या के खिलाफ लग रहे नारों से पूरा इलाका गूंज उठा।
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संसद के बाहर संत समुदाय के सभी प्रतिनिधि गौरक्षकों के सामने अपना शांतिपूर्ण अभिभाषण दे रहे थे। किन्तु कहा यह जाता है कि जब इस आंदोलन के विषय में इंदिरा गांधी को खबर तब उन्होंने गौरक्षकों को भगाने के लिए और संसद के अंदर किसी हाल में उनका प्रवेश न हो जाए इसलिए पुलिस को बल-प्रयोग का आदेश दिया। जब पुलिस ने साधु-संतो और गौरक्षकों पर डंडे और आँसू गैस के गोले दागने लगी तब उन्होंने भी आक्रामक रूप धारण कर लिया और इसी बीच पुलिस को गोली चलाने का आदेश मिला। जिसमें कई गौरक्षकों की मृत्यु हो गई। मृत्यु के आंकड़ों पर भी उस समय की सरकार ने पर्दा डाला और कहा कि केवल 7 से 8 लोगों की मृत्यु हुई है। किन्तु जो लोग उस घटना के गवाह थे उनका यह कहना है कि मरने वाले साधु और गौरक्षकों की संख्या सौ-दो सौ नहीं कम से कम पांच हजार थी। और तो और कई साधुओं को, जिनकी भी संख्या भी हजारों में है उन्हें भी जेल में डाल दिया गया।
कहा जाता है कि जब करपात्रीजी महाराज ने अपने शिष्यों और साथी संतों के शव को देखा तब उनके मुँह से आकस्मिक ही इंदिरा गांधी के लिए श्राप निकल गया कि जिस तरह उन्होंने संतों पर गोली चलवाई है, उनका भी यही हश्र होगा। इतिहास गवाह की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की मृत्यु कैसे हुई।
बहराहल, इस आंदोलन को और इस नर-संहार की खबर को एक-दो को छोड़कर किसी मुख्य अखबार में जगह नहीं मिली। दिल्ली के इतिहास में हुए सबसे बड़े आंदोलन को आज भी न्याय नहीं मिल पाया है। इस विशाल आंदोलन के बाद भी कई उपवास और आंदोलन किए गए किन्तु आज भी सरकारों द्वारा गौ-हत्याओं पर कोई ठोस कानून नहीं लाया गया है। तथाकथित बुद्धिधारी सेक्युलर अब तो खुलकर गौ-हत्या का पक्ष ले रहे हैं और गौ-मूत्र और गाय को माता कहने पर आपत्ति जता रहे हैं। किन्तु गौरक्षकों का यह आंदोलन आज भी जारी है।