सामाजिक – धार्मिक सुधार आंदोलनों का प्राचीन इतिहास !

किसी भी देश व उसके समाज को सुधार की आवश्यकता हमेशा होती है। कोई भी देश तभी आदर्शपूर्ण कहलाता है, जब वह समय के साथ आगे बढ़ा हो और उसमें परिवर्तन हुए हो।

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सुधारवादियों ने सामाजिक - धार्मिक मान्यताओं को इस कसौटी पर रखा की लोग आस्था के साथ साथ तर्क को भी स्थापित कर सकें। (Wikimedia Commons)

भारत अपने गौरवशाली अतीत के लिए संपूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है। परन्तु किसी भी देश व उसके समाज को सुधार की आवश्यकता हमेशा होती है। कोई भी देश तभी आदर्शपूर्ण कहलाता है, जब वह समय के साथ आगे बढ़ा हो और उसमें परिवर्तन हुए हो।

भारत में इतिहास पर थोड़ा नज़र दौड़ाएंगे तो ज्ञात होगा की हमारी सभ्यता को बचाने के लिए कई सामाजिक , धार्मिक आंदोलन हुए। हमारी सभ्यता के एक – एक अंश को बचाया जा सके इसके लिए हर संभव प्रयास किए गए। स्वतंत्र भारत के इतिहास में 19वीं शताब्दी का दौर सामाजिक धार्मिक संघर्षों के रूप में जाना जाता है। उस समय ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार उसकी सांस्कृतिक विचारधारा के प्रचार – प्रसार की आंधी लगभग उठनी शुरू हो चुकी थी | बाहरी संस्कृती का जो फैलाव संपूर्ण भारत में महसूस किया जा रहा था उससे अपनी संस्कृति को बचाना आवश्यक था| अलग – अलग संगठनों ने धार्मिक – सामाजिक सुधार में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। और सुधार की इसी प्रक्रिया को समाज सुधार आंदोलन ” नवजागरण की संज्ञा दी गई थी।

सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलन की सबसे सफल और  कारगर शुरुआत राजाराम मोहन राय द्वारा की गई थी।
राजाराम मोहन राय लिखते हैं : मुझे खेद के साथ कहना पड़ रहा है , धर्म के वर्तमान ढांचे ने हिन्दुओं को इतनी बुरी तरह जकड़ रखा है की उनके राजनीतिक हितों के बारे में कुछ किया ही नहीं जा सकता है। उस समय हिन्दुओं के जीवन में हर क्षेत्र में धर्म का दखल था। समाज में लोगों के सभी कर्म धार्मिक नियमों के तहत निर्धारित थे। और जो इन नियमों का उल्लंघन करता था वो पाप , अंधविश्वास का भोगी माना जाता था। कोई भी धर्म केवल आस्था तक सीमित रहना चाहिए उसका प्रभाव ना ही राजनीतिक जीवन पर पड़ना चाहिए और ना ही सामाजिक जीवन पर। इसी सुधार के तहत राजाराम मोहन राय ने 1828 में बंगाल में “ब्रह्म समाज” की स्थापना की थी। और इसी के तहत एकेश्वरवाद की उपासना , मूर्तिपूजा का विरोध , अवतारवाद का खण्डन , इन सभी उद्देश्य को लेकर ब्रह्म समाज की लहर पूरे भारत में फैल  गई थी। पूर्व में हिन्दू धर्म केवल अंधविश्वास से भरा हुआ था। ऐसा कोई काम नहीं था जो धर्म के नाम पर ना कराएं जाते हो। धर्माचार्य अपनी यौन तुष्ठी के लिए महिलाओं तक को नहीं छोड़ते थे। लड़कियों का जन्म दुर्भाग्य पूर्ण माना जाता था। बाल विवाह की जबदस्ती से लेकर विधवा – विवाह का पूर्णतः निषेध था। पति की मृत्यु होते ही स्त्रियों को सती होने के लिए विवश किया जाता था। तब राजाराम मोहन राय ने इस कुप्रथा का जोड़ दार विरोध किया था। उन्होंने कहा था : किसी भी शास्त्र के अनुसार यह हत्या ही है।

पूर्व में समाज को जड़ बना चुकी जाति व्यवस्था के खिलाफ भी संघर्ष छेड़ा गया था। नैतिक रूप से देखा जाए तो जाति व्यवस्था किसी भी समाज की सबसे घिनौनी व्यवस्था है। और इसी के विरोध में महादेव गोविंद रानाडे द्वारा “प्राथना समाज” की स्थापना की गई थी। हालांकि रानाडे पूर्णतः हिन्दू धर्म से जुड़े हुए थे परन्तु फिर भी वह हिंदू धर्म में सुधार करना चाहते थे। हिन्दू धर्म में व्याप्त भ्रष्ट कुरीतियों से समाज को आज़ाद करना चाहते थे। रानाडे ने कभी भी धर्म परिवर्तन को बढ़ावा नहीं दिया था। उनके हर संभव प्रयास केवल हिन्दू धर्म की तरफ थे हिन्दू धर्म में थे।
सुधारवादियों का दृषटिकोण कभी भी संकीर्ण नहीं था। अगर उनके द्वारा पश्चमीकरण के दौरान धार्मिक – सामाजिक सुधार की लहर नहीं उठी होती तो भारतीयों की जड़ मान्यताएं उसकी पिछड़ी मानसिकता उसे खोखला कर देती और आज भी भारतीय समाज पूर्ण रूप से पश्चमीकरण के रास्ते पर चल रहा होता।

सामाजिक धार्मिक सुधार की परंपरा में एक और कदम स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा रखा गया था। धार्मिक आंदोलन की शुरुआत के साथ उन्होंने “आर्यसमाज” की स्थापना की थी। दयानंद सरस्वती जी ने बहुदेववाद , कर्मकाण्ड जैसे रिवाजों पर हमला किया था।
जैसे – जैसे समाज में परिवर्तन होते गए उससे लोगो के राजनीतिक चेतना में तो विकास होता गया परन्तु सांस्कृतिक पिछड़ा पन बना रहा था। हमारी संस्कृति हमें सदियों तक जीवित रखती है। और समय के साथ इसका विकास ही किसी भी समाज को आगे बढ़ाता है।

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इन सामाजिक – धार्मिक सुधार के ज़रिए जो सांस्कृतिक – वैचारिक संघर्ष चला था उसका  राष्ट्रीय चेतना के विकास में बहुत बड़ा योगदान था। और यह मात्र सामाजिक – धार्मिक आंदोलन भर नहीं था। ये शोषण , जात – पात , भेदभाव के विरोध में और महिलाओं की मुक्ति की तरफ उठाया गया आंदोलन था। सुधारवादियों ने सामाजिक – धार्मिक मान्यताओं को इस कसौटी पर रखा की लोग आस्था के साथ साथ तर्क को भी स्थापित कर सकें। हमें ये बात हमेशा याद रखनी चाहिए की समाज में अलग अलग धर्म विकसित होते हैं । धर्म से समाज कभी भी नहीं बनता है। अगर धर्म का वर्चस्व किसी भी समाज पर होगा तो वो समाज कभी भी विकसित नहीं हो सकता। वो केवल पुतला भर रह जाएगा जिसकी डोर धर्म के हाथों में होगी।

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