यह आर्टिकल, मारिया वर्थ के ब्लॉग पर छपे अंग्रेज़ी लेख के मुख्य अंशों का हिन्दी अनुवाद है।
हिन्दू समुदाय ने बहुत ही संयम और धैर्य के साथ, इस घड़ी का दशकों, सही मायने में सदियों तक इंतज़ार किया है। आखिरकार भारत के उच्चतम न्यायालय ने हिंदुओं के पक्ष में फैसला सुनाते हुए, राम मंदिर निर्माण के लिए हरी झंडी दे दी है, और आज इसी अयोध्या में भूमि पूजन के साथ इस मंदिर की नींव रखी गई। अयोध्या- जहां 500 साल पहले महान श्री राम की जन्मभूमि पर स्थित मंदिर को नष्ट कर मुस्लिम आक्रमणकारियों ने मस्जिद की स्थापना कर दी थी।
5 अगस्त का दिन उत्सव का दिन है, क्योंकि श्री राम केवल प्रिय राजकुमार व अयोध्या के राजा ही नहीं बल्कि विष्णु के एक अवतार, और ब्रह्मांड के पालन कर्ता भी हैं, और वह हर हिंदुओं के दिलों में आज भी जीवित हैं।
राम के बिना भारत, भारत नहीं है। श्री राम, धर्म के प्रतीक हैं, शासन (राम राज्य) के लिए आदर्श माने जाते हैं। भारत के लिए श्री राम की महत्ता सर्वोपरि है।
यहां तक की मुझे भी श्री राम के बारे में तब पता चला जब भारत आने के बाद मैंने उनके बारे में पढ़ा। मुझे 1985 की एक घटना याद है, जब चंबा के पास स्थित टिहरी के एक धर्मस्थल के करीब जब मैं बैठी थी। तो वहाँ मौजूद कुछ भारतीय बच्चों ने मुझसे पूछ लिया, “आप जहां से आई हैं, क्या वहाँ भी लोग श्री राम को जानते हैं?”
मैंने जवाब देते हुए कहा की, “नहीं, जहां से मैं हूँ, वहाँ लोग श्री राम को नहीं जानते हैं।” यह सुन कर वे निराश हो गए। तभी मुझे लाउडस्पीकर की आवाज़ सुनाई पड़ी। वह आवाज़ पास के गाँव से थी, जहां रामलीला की तैयारी चल रही थी।
एक साल बाद, मैंने वाराणसी का भव्य रामलीला देखा। अक्टूबर- नवंबर के महीने में 30 दिनों तक हर शाम इस रामलीला का मंचन होता है। उस वक़्त मैंने इसके ऊपर एक जर्मन मैगज़ीन में लेख लिखा था। ताकि जिस देश से मैं आती हूँ, वहाँ के लोग भी श्री राम के बारे में जान पाएँ।
1986 में लिखा गया वह आर्टिक्ल करीब 6 पन्नों का था जिसमें कई तस्वीरें भी शामिल थी। अब जब वह ऐतिहासिक दिन आ गया है जब श्री राम को उनका महल वापस मिलने जा रहा है। तो इस मौके के लिए, मेरा 6 पन्नों का वह लेख, मैं संक्षिप्त में पेश कर रही हूँ।
1986 में लिखा गया मेरा वह लेख:
अयोध्या के राजकुमार, श्री राम का अस्तित्व हजारों सालों पुराना है। लेकिन आज भी भारत के अधिकांश लोग, रामायण में वर्णित, उनके जीवन की घटनाओं को विस्तार में जानते हैं, न केवल भारत में बल्कि नेपाल, म्यांमार, लाओस, थाईलैंड और इंडोनेशिया की कला और साहित्य पर भी श्री राम का बहुत प्रभाव रहा है।
पिछले साल बैंकॉक में हुए ‘अंतर्राष्ट्रीय रामायण उत्सव’ ने यह स्पष्ट कर दिया है, कि राम आज भी कितने जीवित हैं और दक्षिण-पूर्व एशिया में रामायण का कितना महत्व है। “यदि एशियाई देशों में कोई महाकाव्य समान है तो वह रामायण है।” इस बात की घोषणा बैंकॉक में की गयी थी।
रामायण की मूल धरती भारत में, यह मात्र एक महाकाव्य नहीं बल्कि उससे बढ़ कर है। यह एक पवित्र ग्रंथ है जिसमें वह हर कुछ मौजूद है जिसे जान कर हर कोई सम्मानजनक व मर्यादित जीवन जी सकता है और अपने विभिन्न रिश्तों में खुद को आदर्श पूर्वक संचालित कर सकता है।
श्री राम सिर्फ एक आदर्श ही नहीं बल्कि दिव्य सिद्धांत का एक सचेतन अवतार हैं जो पृथ्वी पर तब अवतरित होते हैं जब अधर्म अपनी सीमा लांघ जाता है और मानवता धार्मिक पथ से भटक जाती है।
कथित तौर पर राम के ही युग के लेखक व महर्षि वाल्मीकि ने महाकाव्य रामायण का 24,000 श्लोकों में वर्णन किया है। जिसमें उन्होने विस्तार में अयोध्या के राजकुमार की कहानी बताई है, जो बाद में जा कर अयोध्या का राजा बनता है।
17वीं शताब्दी में तुलसी दास ने रामायण को हिन्दी में लिख कर इसे और भी प्रसिद्ध कर दिया। राम एक आदर्श हैं जो अन्य लोगों के लिए एक उत्कृष्ट उदाहरण हैं। वह बहादुर व न्यायी (निष्पक्ष निर्णय करने वाला) हैं जो कमज़ोरों की रक्षा करते हैं।
श्री राम का वर्णन, ‘सही समय पर सही काम’ करने वाले व्यक्ति के रूप में किया गया है। वह अपने शब्दों पर अटल रहने वाले व्यक्ति हैं जिन्हे अपने ज़ुबान से पीछे हटने की जगह मरना स्वीकार है। वह अपनी पत्नी सीता को बचाने के लिए लंकापति राक्षक रावण से भी जंग के लिए तैयार हैं।
राम से विवाह करने वाली राजकुमारी सीता के पास, प्राचीन ऋषियों के अनुसार वह सभी गुण हैं, जो एक महिला में होने चाहिए। वह विनम्र, पवित्र, हमेशा अपने पति की भलाई सोचने वाली, ईश्वर पर भरोसा रखने वाली, नेक, समझदार महिला हैं, जो कि निश्चित रूप से अति सुंदर है।
आज कि फेमिनिस्ट महिलाएं (जो कि भारत में भी मौजूद हैं), अक्सर सीता में नुक्स निकालती हुई देखी जाती हैं, लेकिन अधिकतर हिन्दू महिलाओं को उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। वो आज भी सीता को अपना आदर्श मानती हैं।
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श्री राम को मर्यादा पुरुषोत्तम बनने के लिए एक कठिन ज़िंदगी व्यतीत करनी ही थी। और वास्तव में उन्होंने अनगिनत, अप्रत्याशित जटिलताओं और कठिनाइयों का सामना भी किया। उदाहरण के लिए, जब उस सुंदर, बहुप्रिय, राजकुमार को राज्य का सिंहासन सौंपा जाना था, उसी दिन उनके पिता दशरथ को, महल में हुई एक साज़िश के कारण, श्री राम को 14 वर्षों के लिए वनवास पर भेजना पड़ता है।
जिसकी वजह से उनके पिता का दिल टूट जाता है, लेकिन धैर्य धारण किए श्री राम सादे कपड़े में महल छोड़, जंगल के लिए रवाना हो जाते हैं। श्री राम के इस वनवास पर माता सीता और भाई लक्ष्मण भी उनका साथ देते हुए उनके साथ चल पड़ते हैं। अयोध्या छोड़, वनवास को जाते, इन तीनों को देख, पूरी अयोध्या नगरी रो पड़ती है।
“लेकिन ये सब हुआ कब?” मेरे इस सवाल का हमेशा मुझे एक ही जवाब मिला, “हजारों साल पहले, लेकिन तारीख मायने नहीं रखती। मायने रखती है, खुद के अंदर राम को जीवित रखना और अपने जीवन के लिए उनसे सीख लेना।”
इस नज़रिये पर कोई संदेह नहीं है, और शायद यही कारण है कि भारत के लोग इस कहानी को बार-बार सुनने या गाँव के नाटकों में देखने से नहीं थकते है।
वाराणसी में मेरी मुलाक़ात एक व्यक्ति से हुई थी, जिसने अपने जीवन में 35 बार वहाँ का रामलीला देखा था। प्रत्येक वर्ष, वह भक्ति और श्रद्धा से 30 दिनों तक हर शाम रामलीला को देखता आया था।
वाराणसी में रामलीला का मंचन, बड़े ही धूमधाम से, गंगा कि दूसरी छोर पर स्थित रामनगर में हो रहा था। लाउडस्पीकर ना होने के बावजूद वहाँ हजारों कि संख्या में दर्शक मौजूद थे और फ्लैश फोटोग्राफी पर प्रतिबंध लगाया गया था।
रामलीला का समापन दीपावली के दिन होता है जब श्री राम, सालों का वनवास काटने के बाद अयोध्या वापस लौटते हैं और राजा के रूप में अपना पदभार संभालते हैं, जिनका सौम्य, निस्वार्थ और न्यायपूर्ण शासन आज भी याद किया जाता है।
रामलीला शुरू होने से पहले, हर शाम, अभिनेताओं के लिए पूजा की जाती है, और उसके बाद मानो उस अभिनेता को ही उसके किरदार का अवतार मान लिया जाता है।
अंतराल के दौरान कई लोगों ने, राम के किरदार में आए 12 साल के लड़के के सम्मान में पैर भी छुए। रामलीला के दौरान जब राम वनवास के लिए निकलते हैं, तो कई हजार दर्शक, लगभग दो किलोमीटर तक उनके साथ पैदल चल कर जाते हैं। जहां रामलीला का अगला एपिसोड शुरू होना होता था। यह अपने आप में एक अद्भुत अनुभव था।
मुझे नाटक खत्म होने के बाद, आधी रात को गंगा के उस पार वापस जाने कि यात्राएं याद है। उस वक़्त यात्रा करने वाले लोगों में मुख्य तौर पर पुरुष ही होते थे जो रात के शांति में, भीड़ भाड़ वाले अनगिनत नावों में, रामलीला के बाद गंगा पार किया करते थे – एक बार तो सुबह के 4 तक बज गए थे।
वे लोग उत्साह से भरे हुए एक दूसरे के साथ उस दिन के रामलीला को लेकर चर्चा करते थे, और बताते थे कि राम व सीता ने आज कितने बेहतरीन रूप से मार्ग प्रदर्शित किया- जैसे वह अभी कि घटना है और किस्मत से उन्हें साक्षात श्री राम व माता सीता को देखने का मौका मिल गया हो।
बातों के बीच में वे अक्सर अपने अपने धुन में “सिया राम, सिया राम” गाने लगते थे। नांव कि यात्रा खत्म होते वक़्त बनारस के घाट के किनारे स्थित शिव मंदिर के करीब से जब हम गुजरते थे। तो वे लोग ‘सिया राम’ के गीत को छोड़ एक सुर में, ज़ोर से ‘हर-हर महादेव’ का नारा लगाया करते थे।
गंगा घाट से पर्यटक बंगले के बीच का मेरा रास्ता सुनसान हुआ करता था जिसे रिक्शे में बैठ कर मैं अकेले तय किया करती थी। लेकिन मुझे कभी डर नहीं लगा, और मेरा वह भरोसा कभी टूटा भी नहीं।
वाराणसी एक ऐसा आकर्षक शहर है जहाँ जीवन और मृत्यु एक-दूसरे के साथ मौजूद हैं, जहां यह दुनिया और इस दुनिया से परे वह दूसरी दुनिया एक-दूसरे में विलीन हो जाती है। प्राचीन काल में इस शहर का नाम काशी (प्रकाश) हुआ करता था। संभव है कि काशी, इस धरती का सबसे प्राचीनतम शहर है और इसकी उत्पत्ति तब कि है जब संभवतः यह धरती भौतिक चीजों से ज़्यादा अध्यात्म कि तरफ अग्रसर थी।