आज इस लेख को मैं भारत के पूर्व-प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा रचित एक कविता से करूँगा जिस से आपको यह बोध हो हिन्दू का अर्थ उनके और वास्तविक दृष्टि में क्या है,
“मैं अखिल विश्व का गुरु महान्, देता विद्या का अमरदान।
मैंने दिखलाया मुक्ति-मार्ग, मैंने सिखलाया ब्रह्मज्ञान।
मेरे वेदों का ज्ञान अमर, मेरे वेदों की ज्योति प्रखर।
मानव के मन का अंधकार, क्या कभी सामने सका ठहर?
मेरा स्वर नभ में घहर-घहर, सागर के जल में छहर-छहर।
इस कोने से उस कोने तक, कर सकता जगती सौरभमय।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!”
‘आज हिंदुत्व खतरे में है’ ऐसा कह कर न तो मैं धर्मनिरपेक्षता को नीचा दिखा रहा हूँ न ही उन तथाकथित लिबरल या उदारवादी सोच रखने वालों को चुनौती दे रहा हूँ। खतरे में इसलिए है क्योंकि अनुमान यह लगाया जा रहा है कि 2040 तक हिन्दू अल्पसंख्यक के दर्जे में आ जाएंगे। और ऐसा करने वाले यही उदारवादी सोच होगी और धर्म परिवर्तन का ठेका लेकर बैठने वाले लोग होंगे। भारत के तीन ऐसे राज्य एवं केंद्र शासित प्रदेश है जहाँ हिन्दू आबादी 10% से भी कम रह गई है, वह है मणिपुर, नागालैंड और लक्षद्वीप।
केंद्र शासित प्रदेश लक्षद्वीप पर सबसे अधिक मुस्लिम समुदाय है जिसमे घबराने वाली या हैरत में डालने वाली कोई बात नहीं है। किन्तु लक्षद्वीप चोला राजवंश का राज था। जिसके बाद उस पर टीपू सुल्तान ने कब्जा किया और टीपू सुल्तान का इतिहास हम सबको पता है कि कैसे उसने हिन्दुओं का कत्लेआम करवाया था। और टीपू के मरने के उपरांत यह अंग्रेजी शासन के अधीन आया और इसे केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा मिला।
मिजोरम में 87% ईसाई धर्म की आबादी है, जिसका अहम कारण है वहाँ पर भारी मात्रा में धर्मपरिवर्तन होना। मणिपुर राज्य में भी 1991-2001 के बीच हिन्दू जनसंख्या में भरी कटौती हुई है और इसका भी अहम कारण है ईसाई धर्मांतरणकारी द्वारा बड़े पैमाने पर धर्मपरिवर्तन करना। जिसकी शुरुआत का का केंद्र नागालैंड से विस्थापित ईसाइयों द्वारा किया गया है।
जम्मू एवं कश्मीर में भी हिन्दुओं की आबादी केवल 28% के आस-पास ही रह गई है, जिसका कारण न तो विश्व से छुपा है और न ही छुपेगा और वह बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडितों की हत्या और उनका पलायन।
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक अभी धर्मांतरण का विस्तार बड़े पैमाने पर हो रहा है। और इसका अधिक कारण है बाहरी फंडिंग और ‘उनकी’ कट्टरवादी सोच का नतीजा। यह सोच अब अपना विस्तार दक्षिण भारत में भी पैर पसारने पर तुली है। किन्तु साक्षरता और लोगों में बढ़ती जागरुकता को कुछ हद तक कम किया गया है।
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दुःख की बात यह है कि आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे संगठनों पर एक मत को थोपने का आरोप कई वर्षों से लगाया जा रहा है, और कोई इनके पक्ष या विषय में बात करे तो इस्लामॉफ़ोबिक करार दे दिया जाता है। किन्तु सत्य यह है कि यदि ऐसे संगठन भारत में जागरुकता और धर्म का प्रचार-प्रसार नहीं करेंगे तो वह दिन दूर नहीं जब वामपंथी सत्ता की कुर्सी पर होंगे और देश का हिन्दू डरा और सहमा कहीं चुप बैठा होगा। इसलिए इस मुद्दे को उठाने से घबराना क्यों? अगर आज हम सोते रहे तो कल जागना मुश्किल है!