शिक्षा प्राप्त करने वालों की न तो कोई आयु होती है और न ही कोई धर्म, किन्तु आज शिक्षा देने वाले का धर्म भी देखा जाता और साथ ही साथ उसके पाखंड को भी अपनाया जाता है। आज कुछ गिने-चुने शिक्षक ही स्वेछा और निःस्वार्थ भाव से शिक्षा को दूसरों तक पहुंचाते होंगे, अन्यथा आज की दौड़ केवल नोटों पर जाकर ही थमती है। कुछ महापुरुष ही होंगे जो अपने ज्ञान का प्रसार-प्रचार मुफ्त में और बिना किसी ढोंग करते होंगे।
आज की विडंबना यह है कि जिस बाबा का गला सोने के श्रृंगार से भरा हुआ है और जो सोने के सिंघासन पर बैठकर रटी-रटाई बातों को ज्ञान कह कर दूसरों में बाँट रहा है, उसे लोग महात्मा कहते हैं। और जो केवल दो जोड़ी वस्त्र में शास्त्रों का ज्ञान रखता है उन्हें हम जोगी कह कर दूर कर देते हैं। अब हाल यह है कि हाथ की सफाई को लोग भगवान की कृपा मानते हैं और तो और किसी के झूठे लड्डू को प्रसाद समझ ग्रहण भी करते हैं।
किसी की आस्था या श्रद्धा पर प्रश्न खड़ा करना सरासर गैर-क़ानूनी होगा, किन्तु अंधभक्ति और पाखंड को बढ़ावा देना यह कहाँ तक उचित है? हम एक ऐसे युग में हैं जहाँ आधुनिकरण और नवीकरण अपने चरम पर है, और हर कई इसका हिस्सा बनना चाहता है। किन्तु इन सब बातों में हम अपने अहम सिद्धांतों को ताक पर तो नहीं रख रहे? वामपंथी विचारों में ज़्यादा ओझल तो नहीं हो रहे?
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यह सवाल इसलिए है कि आज की युवा पीढ़ी में विरोधाभास ज्यादा बढ़ चुका है, संत महात्मा ही नहीं शास्त्रों और ग्रंथों पर भी सवाल उठाया जा रहा है। राम को मिथ्या और अफ़ज़ल गुरु को नायक बता रहा है। देश के प्रख्यात विश्वविद्यालयों में नक्सली सोच का प्रसार-प्रचार हो रहा है। रूढ़िवादी इतिहासकारों द्वारा भारत के इतिहास को मिटाया जा रहा है और हमे उनका गुण-गान करने के लिए कह रहा है जिन्होंने सिर्फ और सिर्फ इस देश को लूटा है।
हम सबको इस सोच और विचारधारा से बचने की ज़रूरत है, हमे अपने आधार को पुनः मजबूत करने की आवश्यकता है और यह किताबों के ज्ञान से या आपस में बात-चीत से नहीं होगा। इस चेतना को हमें जन-जन तक पहुँचाना है। भावी-भविष्य को अपने धर्म और इतिहास से जुड़े तथ्यों पर से झूठ का आवरण उतार कर फेकना है। तभी सही सवाल उठेंगे और उसका जवाब देने वाले महापुरुष जन्मेंगे।