“सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी”
सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा रचित यह कविता रानी लक्ष्मीबाई के साहस, शौर्य एवं सूझ-बूझ को दर्शाता है। रानी लक्ष्मीबाई का जीवन उन सभी सोच पर तीखा प्रहार करता है जो यह सोचते हैं कि महिलाओं के भीतर पराक्रम की कमी है। आज के युग में महिलाएं हर वह बुलंदियां अर्जित कर रही हैं जिनका पुरुष केवल स्वप्न देखते हैं। किरण बेदी, बछेंद्री पाल, आरती साहा, साइना नेहवाल यह वह नाम हैं जिन्होंने विश्वभर में भारत के नाम एवं गौरव को ऊंचा किया।
झाँसी की रानी वह वीरांगना थीं जिन्होंने अग्रेजों के दांतों तले चने चबाने पर विवश कर दिया। 19 नवंबर 1828 में बनारस, उत्तरप्रदेश में जन्मी लक्ष्मीबाई का दूसरा नाम मणिकर्णिका है, जिसका अर्थ है कान में पहने जाने वाली मणि और इसी नाम से वाराणसी में एक घाट भी उपस्थित है। युद्ध कौशल और राजनीति में वह पारंगत थीं। इस बात सुबूत है जॉन हेनरी सिलवेस्टर द्वारा लिखित किताब ‘रिकलेक्शंस ऑफ़ द कैंपेन इन मालवा एंड सेंट्रल इंडिया’ में जिसमे वह लिखते हैं कि “अचानक रानी ज़ोर से चिल्लाई, ‘मेरे पीछे आओ’ वे लड़ाई के मैदान से इतनी तेज़ी से हटीं कि अंग्रेज़ सैनिक अचंभित रह गए। तभी रॉड्रिक ने अपने साथियों से चिल्ला कर कहा, ‘दैट्स दि रानी ऑफ़ झाँसी।” अंग्रेज़ों की तरफ़ से कैप्टन रॉड्रिक ब्रिग्स पहला शख़्स था जिसने रानी लक्ष्मीबाई को अपनी आँखों से लड़ाई के मैदान में लड़ते हुए देखा। उसने देखा कि रानी लक्ष्मीबाई ने मुँह से घोड़े की नाल संभाली है और दोनों हाथों में तलवार लिए अंग्रेजों पर बिजली की तरह गरज रही हैं।
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आज शौर्य एवं पराक्रम को नमन करने का दिवस है और भारत में उन सभी अल्प बुद्धिधारियों को यह समझने की आवश्यकता है कि एक महिला न केवल बड़े से बड़ा काम कर सकती हैं बल्कि वह इस देश की प्रगति में अहम योगदान भी दे रहीं हैं।