काश यूँ हुआ होता : कहानी जयनाथ मिसरा की (भाग-1)

By: अभिषेक कुमार 

“लड़का हुआ है”

शादी का माहौल था, 10 जून-1939, हर तरफ शोर, लोगों की भागदौड़। जयपुर की बड़ी कोठी थी। अब जितना बड़ा वैभव, उतना ही बड़ा जम घट, उतनी ही साध, उतनी ही आतिशबाजियां। 

कोठी के मालिक थे डॉ. राय बहादुर शम्भुनाथ मिसरा। पेशे से सर्जन थे। लाहौर मेडिकल कॉलेज से पढ़ाई पूरी की थी। ना तो यह अंग्रेज़ों के हितैषी थे और ना ही इन्हें उनसे कोई मुख़ालिफ़त थी। गोरों ने ही इन्हें राय बहादुर के उप-नाम से नवाज़ा था। आगरा और उरई में भी इनके दो तीन बड़े घर थे। लेकिन मुख्य रूप से इनका निवास उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में था। उधर इनके पास दो घोड़े  और एक मोटर कार भी थी। राय साहब बुलंदशहर के एक लौते डॉक्टर थे। किसी को सर्दी जुकाम हो या कोई बड़ी बीमारी, इलाज करने का ज़िम्मा इन्हीं के सिर था। और देखा जाए तो उस दिन  सुशीला के लिए भी राय साहब ही वरदान बने।

कोठी के शोरगुल में सुशीला के पास गोलाकार भीड़ लगी हुई थी। हरी साड़ी वाली औरत ने कहा – “लड़का हुआ है।” पर किसी को उसके रोने की आवाज़ नहीं आई। कोठी का सारा शोर शून्य में आ गिरा। राय साहब ने वहां खड़े नाटे कद के आदमी को कुछ इशारा किया। इशारे में किए आदेश का पालन हुआ। पैर पटकते हुए नाटे आदमी ने दो अलगअलग तसलों में ठंडा और गर्म पानी हाज़िर कर दिया। राय साहब की गोद में बच्चा था। उन्होंने कपड़े से मुट्ठी बनाई। लड़के के कूल्हों पर कभी ठंडे पानी की सेक करते तो कभी गर्म पानी की। ठंडा-गर्म, ठंडा-गर्म, ठंडा-गर्म। कुछ मिनट पहले ही पैदा हुए उस नन्ही जान से यह दर्द सहा ना गया कि आख़िरश वह रो पड़ा। और यही हुए डॉ. राय बहादुर शम्भुनाथ मिसरा के सबसे छोटे पोते- जयनाथ मिसरा।

जयनाथ मिसरा jainath Misra काश यूँ हुआ होता आम आदमी पार्टी
जयनाथ मिसरा (उम्र 8 साल)

मातृत्व के उन क्षणों में सुशीला का चेहरा भावहीन था। उस भारतीय नारी का यह सातवां बच्चा था। दो की मौत हो चुकी थी। बाकी दो लड़के स्कूल में थे। दोनों लड़कियाँ उसके बगल में बैठी अपने भाई को दो टूक देख रहीं थीं। सुशीला भी कभी बच्चे को देखती, कभी कैलाश को ढूंढने लगती। कैलाश नाथ मिसरा घर में आये नए मेहमान के पिता हैं। भीड़ कटती गयी पर कैलाश शायद उस भीड़ का हिस्सा नहीं था। या मुमकिन है कि वो भी उसी भीड़ के साथ कमरे से निकल गया हो। ऐसा सुशीला ने जयनाथ के माथे पर हाथ फेरते हुए सोचा।

शादी का सारा तामझाम खत्म होने पर सुशीला अपने बच्चों के साथ कलकत्ता लौट आई। कैलाश कुछ दिनों बाद लौटा। मिसरा खानदान का यह हिस्सा कलकत्ता में ही रहता था। कैलाश स्टॉक एक्सचेंज का काम करता था। उसके लिए धंधा रिश्तों से कुछ मीटर ऊपर था। अंग्रेज़ी ठाठ में रहने वाले कैलाश ने अपने दोनों बेटों मनमोहन और निरंजन का दाख़िला दार्जिलिंग के किसी प्राइवेट स्कूल में करा रखा था। दोनों वहीं हॉस्टल में रहते थे। इसी कारण से घर के शादी-ब्याह में उनकी हाज़िरी ना के बराबर रहती। कैलाश की जुड़वा  बेटियां दया और मंजू घर में ही पड़ी रहती थीं। मंजू, दया से पांच मिनट बड़ी थी। इन दोनों पर घर के कामों का बोझ ना था। यह सब सुशीला अकेले ही संभाल लिया करती। घर में एक और सदस्य के आ जाने के बाद भी सुशीला ने काम का टोकरा अपनी बेटियों के सिर नहीं पटका।

 

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जयनाथ अब दस महीने का हो चुका था। उसी दौरान कैलाश ने एक दिन सुशीला से कहा – “परसों मैं तुम लोगों को पापा के पास छोड़ आऊंगा”, सुशीला ने कुछ सोचते हुए चेहरे से अपने पति की ओर देखा। कैलाश ने अपनी बात जारी रखी।

“बस इतना समझ लो कि हम लोग कलकत्ता में रह सकें, ऐसी हालत रही नहीं। इसलिए तुम लोग बुलंदशहर चले जाओ, दार्जिलिंग भी पत्र भिजवा ही दिया है। अगले हफ्ते वो दोनों भी सीधा वहीं आ जायेंगे। मुमकिन है कि अगले कुछ दिनों में मैं भी विदेश चला जाऊँ…बात जम गई उधर तो तुम लोगों को भी बुला लूँगा।”

यह बात सुशीला को अचानक ही पता चली। यानी कैलाश ने विदेश जाने का मन बहुत पहले ही बना लिया था। शायद इसलिए जयपुर से लौटते वक़्त वो हमारे साथ नहीं था। अपने पिता जी के साथ बुलंदशहर गया होगा। सुशीला के दिमाग में यह सारी बातें चल रहीं थीं मगर उसने सवाल खड़े नहीं किए। उसकी आदत में ही ज़्यादा पूछताछ करने वाला वायरस नहीं था। उसे मालूम था कि कैलाश का शेयर बाज़ार में काफी घाटा हुआ है। यही घाटा उसे अपने परिवार से दूर कर रहा था। 

लिहाज़ा सुशीला अपने बच्चों के साथ बुलंदशहर में रहने लगी। कैलाश भी अब इंग्लैंड की मिट्टी पर था। पराए आसमान के नीचे भूरे रंग के लम्बे कोट से ढके हुए कैलाश की नसों में क्षितिज से आ रही किरणों का बहाव हो रहा था। आख़िर यह बहाव उसे किस दिशा में ले जाने वाले था?

जीवनी का अगला पाठ आपको उसी दिशा में ले जायेगा…जहाँ एक बेटे की कुंठा, एक पत्नी का अकेलापन और एक माँ की लाचारी ख़ुद-बख़ुद मुखरित है।   

 

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