काश यूँ हुआ होता : कहानी जयनाथ मिसरा की (भाग-5)

 

24 जून 1967

अभी तक – 

काश यूँ हुआ होता : कहानी जयनाथ मिसरा की (भाग-1)

काश यूँ हुआ होता : कहानी जयनाथ मिसरा की (भाग-2)

काश यूँ हुआ होता : कहानी जयनाथ मिसरा की (भाग-3)

काश यूँ हुआ होता : कहानी जयनाथ मिसरा की (भाग-4)

जैसे ही सुशीला के गुज़र जाने की खबर कैलाश के कानों में पड़ी, उसने अगले कुछ ही दिनों में आईवी को क़ानूनी तौर पर अपनी पत्नी का दर्जा दे दिया। मानो वह इसी दिन की राह देख रहा था। शादी से पहले ही कैलाश और आईवी के चार बच्चे हो चुके थे।

माँ की मौत की खबर मिलने के हफ्ते बाद ही जयनाथ बर्मिंघम में कैलाश के घर पहुंच गया। यह बात वह अपने पिता को खुद बताना चाहता था। कैलाश को सुशीला के बारे में जानने का हक़ है। कैलाश…सुशीला का पति है। मन में इन्हीं विचारों को लिए, कैलाश के घर पहुंचने पर सबसे पहले जयनाथ का सामना आईवी से हुआ। यह दोनों ही एक दूसरे से अनजान थे। घर में दाखिल होने के बाद जयनाथ की नज़र वहां खेल रहे बच्चों पर गई। आईवी ने जयनाथ को बैठने का इशारा किया। जयनाथ अपने पिता के घर में इन लोगों को देख कर भ्रमित था। ना जाने कौन हैं? पड़ोसी के बच्चे होंगे, पर यह औरत? काम करने वाली नहीं लगती, फिर? जयनाथ यही सब सोच रहा था। बच्चे कभी पीछे से उसकी पीठ पर थपकी मार कर भाग जाते तो कभी उनकी गेंद उसके जांघों से आ टकराती। जयनाथ चुप-चाप बैठा हुआ था। उसके बगल वाले सोफे पर काली टी-शर्ट पहने  एक जवान लड़का भी बैठा था। पॉल! बातचीत में उसका यही नाम सामने आया। पॉल भी इन्हीं के साथ रहता था। जयनाथ उससे और कुछ पूछ पाता इतने में दरवाज़े की घंटी बजी। आईवी ने ही दरवाज़ा खोला। कैलाश अंदर आया। सभी बच्चे उसे डैडी कह कर पुकारने लगे।

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जयनाथ को सारा खेल समझ आ गया। बिजली की गति से सुशीला का चेहरा उसके माथे से पार हुआ। मानो बादल की गरज ने उसके हृदय की दीवारों को हिला कर रख दिया हो। माँ की मौत ने जिन आंसुओं के बाँध को खोल दिया था, वही धारा पुतलियों पर उबल रही थी। माथे की नस फटने को थी। ऐसा लग रहा था मानो कोई उसके शरीर को दो बड़े वज्र हाथों के बीच दबोच रहा है। अभी जयनाथ अपनी माँ के गम में दुबक कर ही बैठा था कि उस पर यह कैसा कहर आ गिरा। मन किया कि वहां से उठ कर चला जाए। पर रुक गया। शायद अभी भी उसे अपने पिता से सहानुभूति की उम्मीद थी। मगर कैलाश अपने नए परिवार के साथ कहीं घूमने का प्लान बना चुका था। उसने जयनाथ से अपना घर अगोरने की सिफारिश कर डाली। जयनाथ एक बार फिर अपने पिता के सामने बौना बन गया।

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घर में एक कमरे से दूसरे कमरे में घुसते-निकलते हुए, जयनाथ के हाथों कुछ खत आ गए। इनमें से कुछ खत बुलंदशहर से आये हुए थे। कुछ इंग्लैंड से कहीं और भेजे गए थे। उन खतों में सुशीला के आए खत भी थे। कुछ लिफाफों की सील भी बिलकुल नई थी। ऐसा ही एक खत था जो कैलाश ने किसी कंपनी को लिख रखा था। यह खत भेजा नहीं गया था। खत में लिखा था,” I have a Nephew by the name of Jainath Misra, I would like you to enroll him in your internship program…(जयनाथ मिसरा के नाम का मेरा एक भतीजा है, मैं चाहूंगा कि आप उसे अपने इंटर्नशिप प्रोग्राम में दाखिला दें…)” इससे आगे पढ़ने की उसकी हिम्मत ना हुई। उसने एक बार फिर से आंसुओं को आँखों के कोने में दबा लिया। मुंह लाल और सांस भारी हो चली। जयनाथ अपने पिता के घर से उसी पल निकल गया। उसी पल में उसने पिता को एक बार फिर से अपने दिल से निकाल फेंका। दिल के उस खाली पन में सैलाब उमड़ रहा था। उसके जीवन से माँ और पिता की अर्थी एक साथ उठ चुकी थी। जयनाथ ने लंदन के लिए ट्रेन पकड़ी। ट्रेन की हर छुक-छुक उसे एक अंधेर खाई में अपनी ओर खींच रही थी। मानो काली खाई के उस पार चुंबक लगा हो। किन्तु इस खाई के काले पन के बाहर एक और दुनिया थी।

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लंदन पहुंच कर बिना देर किए जयनाथ ने मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिग्री कोर्स के लिए अप्लाई कर दिया। उसी के साथ ग्रांट पाने की इच्छा से आवेदन भी भर दिया। जयनाथ पिछले दो सालों से लंदन में काम कर रहा था। इसलिए ग्रांट मिलने में उसे अधिक समस्या नहीं हुई। जिसके बाद जयनाथ का कॉलेज में एडमिशन हो गया। अब उसे पढ़ाई के साथ-साथ पार्ट टाइम काम करने की कोई ज़रूरत नहीं थी। उसका पूरा ध्यान पढ़ाई में लीन हो सकता था। और हुआ भी यही। जयनाथ के पास खोने को अब और कुछ नहीं था। पिता के बाद मनमोहन के साथ भी उसके संबंध कुछ ख़ास नहीं रहे। मनमोहन अपनी ही दुनिया में खुश था। बर्मिंघम में उसका अपना घर था, गाड़ी थी। भारत में रह रहे परिवार से तो मानो जयनाथ का हर धागा ही छूट गया हो। उसका जीवन शून्य में जा गिरा था। किन्तु यहाँ से उड़ान भरने को अभी पूरा आसमान बाकी था।

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कॉलेज के दूसरे साल में एक अंग्रेज़ी डांस प्रोग्राम का आयोजन हुआ। कॉलेज के विद्यार्थियों के अलावा भी वहां कई जवान लोग इकट्ठा हुए थे। उन्हीं में से एक थी मैरी। लम्बा कद, दूधिया रंग। जयनाथ ने मैरी को वहां पहली बार देखा। जयनाथ और उसकी उम्र में पांच सालों का अंतर था। दोनों के दरमियान थोड़ी हिचक, थोड़ी बातें शुरू होने लगीं। मैरी पोस्ट ऑफिस मिनिस्टर की चीफ सेक्रेटरी के औदे पर काम कर रही थी। जयनाथ कॉलेज स्टूडेंट था। इसके बावजूद दोनों को एक दूसरे का साथ पसंद आने लगा। जयनाथ के जीवन में मैरी का आना ठीक ऐसा रहा जैसे जून के महीने में बारिश का आना, बैरागी का ध्यान मग्न होना, कलाकार का भावुक हो जाना। लंदन की सर्द हवाएं इनके प्रेम की गवाह रहीं। प्रेम की मिठास में विश्वास की चाशनी तब और घुल गई जब जयनाथ और मैरी साथ रहने लगे। कॉलेज के अंतिम साल में जयनाथ के हॉस्टल वाले कमरे के बगल वाला कमरा खाली हो चुका था। उसके कहने पर मैरी वहीं आ गई। इससे पहले मैरी लंदन के भीतर कहीं रहा करती थी। हॉस्टल लंदन के ऑउटस्कर्ट्स में था। साथ रहने से विश्वास और स्नेह के मिश्रण ने दोनों के मध्य ऐसे संबंध को जन्म दिया कि मैरी ने जयनाथ के सामने शादी का प्रस्ताव रख डाला। बीते सालों में मैरी के परिवार में जयनाथ काफी घुल-मिल गया था। इसलिए किसी को इस रिश्ते से कोई ऐतराज़ ना था। दोनों ने तय किया कि कॉलेज खत्म होने के तुरंत बाद ही शादी कर ली जाएगी। लेकिन जयनाथ पैसों का सारा बोझ मैरी पर नहीं रखना चाहता था।

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मैरी और जयनाथ स्कॉटलैंड में हनीमून के दौरान। 

कॉलेज के आखिरी समर इंटर्नशिप में उन बच्चों के लिए अच्छा अवसर था जो मशीनों की वर्किंग सीखना चाहते थे। जयनाथ ने अपना नाम दे दिया। छः महीनों की इस वर्कशॉप में उसने मशीनों को चलाना भी सीखा और काम कर के पैसे भी कमाए; 600 पाउंड के करीब कमाई हो गई थी। दहेज में अलग से 500 पाउंड मिल रहे थे। यानी शादी के बाद घर का प्रबंध हो सके इसका इंतज़ाम हो गया था। कॉलेज खत्म होते ही उसे मोटर कार इंडस्ट्री में रिसर्च बेस्ड नौकरी मिल गई। और इसी के साथ स्कॉटलैंड में 24 जून 1967 को मैरी और जयनाथ शादी के बंधन में बंध गए। स्कॉटलैंड ही इनका हनीमून स्पेस रहा। हनीमून से लौटते वक़्त जयनाथ अपने पिता की नई फैक्ट्री पर भी गया। कैलाश ने फ़ोन मैन्युफैक्चरिंग में हाथ आज़माया था। स्कॉटलैंड में ही उसकी फैक्ट्री थी। वहीं एक बार फिर से सालों बाद बाप-बेटे की मुलाक़ात हुई। मैरी के कहने पर जयनाथ ने कैलाश को शादी में आने का न्योता भी दिया था। मगर वहां सिर्फ आईवी के बच्चे शरीक हुए, कैलाश और आईवी नहीं। इस बार जयनाथ से मिल कर कैलाश के चहरे पर आत्मविश्वास की जगह चिंता के भाव थे। इस चिंता का खुलासा तब हुआ जब उसने पॉकेट से खत निकाल कर जयनाथ के हाथों में पकड़ा दिया। भारत से आया हुआ खत था। सुशीला की मौत के बाद भारत से भेजा गया यह पहला खत था…! 

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