काश यूँ हुआ होता : कहानी जयनाथ मिसरा की (भाग-2)

By: अभिषेक कुमार 

“…पापा”

 

कैलाश के यूँ विदेश चले जाने के बाद उसके परिवार का भार राय साहब के बुजुर्ग कन्धों पर आ गया। कैलाश के अलावा उनके दो और बेटे थे; राजेश्वर नाथ मिसरा और सुरेश नाथ मिसरा। सुरेश ने वकालत की पढ़ाई कर रखी थी। ख़ैर पढ़ाई तो मात्र शो-बाजी रही। पढ़-लिख कर तमाम दिन घर में हवा फाँकने से भला कौन सी वकालत होती है। अपने पिता के पैसों पर किसी तरह से अपने परिवार को पाल रहा था। सुरेश के नौ बच्चे थे। वो आम तौर पर किसी ना किसी बीमारी के लपेटे में रहता और अगर बीमारी ठीक तो आलस के योग आसान में बैठ जाया करता था। अस्थमा ने उसे बहुत पहले ही अपने पंजों में धर लिया था। बेरोज़गारी और नाज़ुक तबियत ने उसे कभी अपने पिता के साए से दूर जाने ही न दिया। राय साहब का पहला बेटा राजेश्वर नौकरी के सिलसिले में ज़्यादातर अपने बीवी बच्चों से दूर इलाहाबाद में रहता था। किन्तु उसका बाकी परिवार राय साहब के साथ बुलंदशहर में ही था। और अब तो कैलाश का परिवार भी वहीं रहने को आ गया था। मनमोहन और निरंजन भी दार्जिलिंग से लौट आए थे। सौभाग्य रहा कि यहाँ आने के बाद भी उनकी पढ़ाई जारी रही, हाँ मगर सरकारी स्कूल में। सुशीला ने अपनी दोनों लड़कियों को भी स्कूल भेजना शुरू कर दिया था। सुरेश ने यह देखा और उसने भी अपनी बेटियों से स्कूल जाने को कहा।

समय बीतने लगा…

सुशीला की सेहत के धागे कमज़ोर होते जा रहे थे। कैलाश की चिट्ठियों का सिलसिला भी अपने आखिरी पड़ाव पर दम तोड़ रहा था। इसी बीच राय साहब ने 1945 में दुनिया को अलविदा कह दिया। जिसके बाद घर के मालिक हुए सुरेश नाथ मिसरा।

1946 में जयनाथ 7 साल का हुआ तो उसने भी प्रामाणिक शिक्षा का रास्ता इख्तियार किया। इससे पहले वो अपनी माँ से बुनियादी तालीम ले रहा था। कहने को जयनाथ उसी विद्यालय में था जहाँ उसके बड़े भाई-बहन पढ़ कर निकले। लेकिन वहां कुछ ऐसा था जिसने सिर्फ जयनाथ की धड़कनों में अड़चन पैदा की। सुबह की प्रार्थना में स्कूल के बीच वाले मैदान में तीसरी कक्षा की लाइन में खड़े हो कर अंग्रेज़ों के लिए “गॉड सेव द किंग” गाने के बाद छोटे जयनाथ को हर बार अपनी गुलामी का एहसास होता। हारमोनियम की धुन पर उसे यह गीत एक इंच ना भाता था। उसके कलेजे में सुकून ने अंगड़ाई तब ली जब 1947 की एक सुबह वो अपनी चौथी कक्षा की लाइन में खड़ा था और भारत का झंडा नीले आसमान को ऐसे छू रहा था जैसे ढलता सूरज सुर्ख़ आसमान को चूमता है।

जीवनी का पहला भाग पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें – काश यूँ हुआ होता : कहानी जयनाथ मिसरा की (भाग-1)

kaash yun hua hota story of jainath Misra
जब जवाहरलाल नेहरू बुलंदशहर आये, तब सुरेश ने अपने भतीजे जयनाथ (बाईं ओर) से फ्रेम में इस तरह खड़े होने को कहा जिससे फोटो में नेहरू के साथ वह भी मौजूद दिखे।  

हमारे इन साहबज़ादे का मन पढ़ाई से ज़्यादा खेल कूद में लगने लगा था। कभी कच्ची सड़कों पर उतर कर कंचे पर निशाना साधते, कभी गुल्ली को डंडे की चोट से एक खेत पार फेंक देते। कभी मिट्टी उड़ाते हुए अपनी सफ़ेद बाज़ू वाली शर्ट मैली कर देते, या कभी अपने बड़े-बड़े कान ज़मीन पर टिका कर ना जाने क्या सुना करते? कहीं उसे किसी की आहट का इंतज़ार तो ना था? 

जयनाथ की आँखों में कोई बड़ी छलांग नहीं थी मगर साइकिल की ट्रिंग-ट्रिंग ने उसकी इच्छा शक्ति को अपनी बाँहों में ज़रूर कस लिया था। फिर क्या था, माँ से साइकिल की फरमाइश कर डाली और उनसे मिले चार आने हथेली में दबा कर किसी दुकान से घंटे भर के लिए साइकिल उधार पर ले ली। सरपट दौड़ते चक्के ने मोहल्ले की हर गली नाप दी थी। तभी जयनाथ ने अचानक ही ब्रेक मारा, साइकिल तीन हाथ आगे जा कर रुकी। जयनाथ की सांस भारी हो रही थी। बगल से आवाज़ पार हुई – ” बेटा कहाँ को जारा…धीरे चला”, बैंगनी रंग की साइकिल वाले को उसके पिता ने पीछे से भाग कर पकड़ लिया, लड़के ने चपटी शक्ल के साथ कहा-  ” …पापा” और फिर अजीब तरीके से अपने पिता को मुंह चिढ़ाने लगा।

जयनाथ सोचने लगा कि उसने तो साइकिल खुद चलानी सीखी है। गिरते वक़्त किसी ने उसे पीछे से आकर नहीं पकड़ा था। उसने तो कभी किसी को ऐसे मुंह चिढ़ा कर नहीं दिखाया। फिर इस बैंगनी रंग की साइकिल वाले ने ऐसा क्यों किया? जयनाथ ने पैडल पर पैर घुमाया…साइकिल की रफ़्तार को मानो इस बार जंग लग गया हो। शाम को घर आकर बिना खाना खाए ही बिस्तर पर लेट गया। उसे उस रात नींद नहीं आई। शायद सच में उसे किसी की आहट का इंतज़ार था। उसी आहट के इंतज़ार में वहां सुशीला भी गली जा रही थी।

सुशीला ने अभी तक कैलाश द्वारा तोहफे में दी गई हील वाली चप्पल संभाल के रखी थी। बुलंदशहर आने के बाद उस हील वाली चप्पल ने सुशीला के रुखे पैरों की शोभा कभी नहीं बढ़ाई। यह लम्बी हील वाली चप्पल कैलाश के अंग्रेज़ी शौक का नमूना थी। यह लम्बी हील वाली अंग्रेज़ी लाल चप्पल अब सुशीला के पैरों में ढीली पड़ गई थी। उस बेचारी के आंगन में कैलाश एक ऐसी काली रात फेंक गया था जहाँ गुलाब भी गर खिलें तो नश्तर सी नक्काशी लिए। जहाँ बारिश की बूंदें बदन पर घाव कर दें। जहाँ हृदय पीड़ा की कोई भी आवाज़ शरीर की दीवारों को पार नहीं करतीं। जहाँ ज़िम्मेदारियाँ इंसान के आंसुओं को पत्थर कर देती हैं। क्योंकि सुशीला की डबडबायी धसी आँखों को किसी ने ना देखा था।

Sushila Misra
सुशीला मिसरा (बाएं से पहली)

उसका जीवन अपने बच्चों की देखरेख में इस तरह गुज़र रहा था कि उसे खबर ही ना पड़ी कि कब कैंसर ने उसे अपने आगोश में कर लिया। जयपुर के अस्पताल से इस बात की पुष्टि हुई कि डायबिटीज की मरीज सुशीला को स्तन कैंसर है। इलाज के लिए मोटी रकम की आवश्यकता थी! जिसके लिए मनमोहन ने अपने पिता कैलाश को पत्र लिखा। पत्र में सुशीला के हाल का पूरा विवरण था और साथ ही पैसों की मांग भी। कैलाश को यह मांग मुनासिब लगी और उसने कुछ पैसे भेज दिए।  

इसके बाद कैलाश अब हर महीने पैसे भेजने लगा था। इसके पीछे का उसका संघर्ष तारीफ के लायक है। उसने किसी भी स्थिति में अपने हौसले की कमर झुकने नहीं दी थी। किस्मत ने भी उसका अच्छा साथ दिया था…इंग्लैंड पहुंच कर सबसे पहले कैलाश ने सेल्समैन के तौर पर काम किया। रहने के लिए सस्ता सा घर भी किराए पर पक्का कर लिया था। फिर दूसरे विश्व युद्ध के दौरान उसने अपना ख्याल बदला और एक लेथ मशीन खरीद ली। मशीन को अपने किराए के घर के बाहर वाले गार्डन में फिट करवा लिया। कैलाश को इस मशीन का हुनर तो ना था इसलिए उसने एक अँग्रेज़ को काम पर रख लिया। इस तरह उसके रोज़गार की गाड़ी चल निकली। इन बातों की खबर भारत में किसी को ना थी। वो क्या करता था? किसके साथ रहता था? यह लोगों के लिए किसी रहस्य से कम ना था। जान-पहचान के लोग अपनी ही कहानियां बनाने लगे थे। कोई कहता- “गोरी मेम के साथ रह रहा होगा” – “कैलाश ने शादी कर ली है” – “उसके एक बच्चा भी है”, इन बातों में शादी वाला अनुमान गलत था। लेकिन बच्चे वाली बात सच साबित हुई। वहां युद्ध के वक़्त कैलाश का एक औरत के साथ संबंध कायम हुआ, उसी से उसे एक लड़का हुआ – पॉल। पॉल को जन्म देने के तुरंत बाद ही उसकी माँ गुज़र गई। फिर भी कैलाश ने बच्चे को खुद से दूर नहीं किया। भारत में जिन शेयर्स की कीमत गिरने के बाद कैलाश ने कलकत्ता की गलियों से खुद को रुखसत किया था, पच्चास के दशक में उन शेयर्स के दाम बढ़ने लगे। कैलाश ने शेयर्स बेच दिए। मुनाफ़े में हाथ लगे पैसों से एक छोटी सी फैक्ट्री खरीद ली। फैक्ट्री में प्लास्टिक की अनेक प्रकार की वस्तुओं का उत्पादन हुआ करता था। कैलाश का बिज़नेस ठीक-ठाक चल पड़ा।

जबकि उसका भाई सुरेश अपने पिता के पैसों को पानी के भाव बर्बाद कर रहा था। पुंजी में कोई प्रगति नहीं थी। विरासत को दीमक लग चुका था। लाखों जतन के बावजूद सुरेश की आर्थिक स्थिति दिन-ओ-दिन खराब होने लगी थी। छोटे-मोटे काम कर के उसका गुज़ारा चल रहा था। शुक्र है कि इन हालातों के और गर्द में जाने से पहले ही घर की तीसरी पीढ़ी अपना होश संभालने लगी।

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सुरेश और राजेश के बच्चों में से कुछ अपनी पढ़ाई पूरी कर चुके थे। लड़कियों की शादी हो चुकी थी। कुछ लड़के नौकरी की तलाश में थे। कुछ सुरेश की तरह लापरवाही की चमड़ी खरोंच रहे थे। ऐसा ही मोटे दिमाग का अधिपति निकला कैलाश का दूसरा बेटा निरंजन। कैलाश विदेश से अपने इसी बेटे के हाथों में पैसे भेजा करता था। निरंजन भी अपने पिता की जी हज़ूरी करने में कदम भर पीछे ना था। कैलाश अपने बच्चों के जीवन में पिता की गैरमौजूदगी को नोटों से भरने की कोशिश में लगा था। उनकी पढ़ाई-लिखाई का ज़्यादातर खर्च कैलाश पार लगा दिया करता। इसलिए बच्चों को भी अपने पिता से कोई ख़ास गिला नहीं रहा। कैलाश के कहने पर ही दया ने डॉक्टरी की पढ़ाई शुरू कर दी थी। मिसरा परिवार से मंजू की डोली अभी पिछले साल ही उठी थी। जिसके बाद मंजू अपने पति के साथ कलकत्ता जा कर बस गई।

जयनाथ ने लखनऊ विश्वविद्यालय में ग्रेजुएशन के लिए एडमिशन ले लिया था। पढ़ाई के खेमे से कुछ ख़ास दिलचस्पी ना रखने वाले इस नौजवान ने वहां टेनिस खेल को अपना हमसफर कर लिया। घर का सबसे बड़ा बेटा मनमोहन भी इलाहाबाद विश्वविद्यालय से इकोनॉमिक्स में एम.ए कर घर वापस आ चुका था। घर आए उसे लगभग दो साल हो चुके थे।

मनमोहन तुनक मिज़ाज का आदमी था। अपनी ही धुन में रहा करता। थोड़ा मुंहफट भी था। इसके बावजूद पढ़ाई-लिखाई में मिसरा परिवार के बच्चों में मनमोहन ही सबसे आगे था। सभी को उससे काफी उम्मीदें थीं। लेकिन मनमोहन के दिमाग ने कुछ और ही सोच रखा था। उसका यह फैसला सुशीला के बर्फ पड़े घाव को फिर से ताप दे सकता था।

क्या मनमोहन भी अपने पिता की ही तरह सुशीला से दूर जाने वाला था? या बात कुछ और थी? जीवनी का अगला भाग ” हमें डर है हम खो न जाएं कहीं ” उसी राज़ से पर्दा उठाएगा जहाँ आप जयनाथ के जीवन के सबसे बड़े मोड़ पर खुद को खड़ा पाएंगे।   

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