जहां कई देशों में कोरोनावायरस के मामले बढ़ रहे हैं, वहां एक असरदार वैक्सीन यानी टीके की खोज कर पाने की चिंता हर दिन बड़ी होती जा रही है। 14 लाख से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं और अब भी ये सिलसिला जारी है यानी कोरोना की मार बहुत बुरी है। वहीं, फाइजर नाम की दवाईयां बनाने वाली एक कंपनी ने हाल ही में ये ऐलान किया है कि वो लैब में कोविड-19 यानी कोरोना की ऐसी वैक्सीन बनाने में सफल हुई है जो कि वायरस के सामने 96 फीसदी असरदार है।
हालांकि, वैक्सीन को मंजूरी मिलने से पहले यह देखा जाता है कि वह वैक्सीन कितनी सुरक्षित है। उसके लिए बहुत जांच की जाती है, जो कि एक लंबी और महंगी प्रक्रिया हो सकती है। आमतौर पर वैक्सीन की केवल 10 प्रतिशत जांच ही सफल रहती है। इससे पहले कि एक वैक्सीन का टेस्ट हो सके इसे शुरूआती जांचों से गुजरना होता है और ये देखा जाता है कि कौन-से ऐंटिजन यानी प्रतिजन इसमें इस्तेमाल होने चाहिए।
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दरअसल, ऐंटिजन वैक्सीन के छुपे हुए हथियारों की तरह होते हैं। इसमें बीमारी का या बीमारी फैलाने वाले वायरस का एक छोटा-सा हिस्सा होता है, ताकि रोगों से लड़ने वाली प्रतिक्रिया यानी इम्यून रिस्पॉन्स शुरू करवाया जा सके। इस पूर्व-नैदानिक पड़ाव पर, ऐंटीजन का टेस्ट ऐसे जानवरों पर किया जाता है जिनका जेनेटिक ढ़ांचा हमसे मिलता-जुलता है।
वैक्पसीन के पड़ाव
अगर सब कुछ ठीक रहता है, तो वैज्ञानिक पहले पड़ाव की शुरूआत करते हैं। इसमें कुछ स्वयंसेवकों को वैक्सीन दी जाती है। शोधकर्ता और डॉक्टर देखते हैं कि सही इम्यून रिस्पॉन्स मिल रहा है या नहीं, जिससे इंसानों के लिए इसकी सही खुराक पता लगाई जा सके।
दूसरे पड़ाव में, वैक्सीन अलग-अलग उम्र के सैकड़ों स्वयंसेवकों की दी जाती है। और आखिरकार, तीसरे पड़ाव में, हजारों स्वयंसेवकों पर इसे टेस्ट किया जाता है। ये टेस्ट अलग-अलग देशों के लोगों पर होते हैं, ताकि ये देखा जा सके कि ये वैक्सीन एक दूसरे से बहुत अलग आबादियों पर असर कर सकती है या नहीं।
इस समय, फाइजर की वैक्सीन टेस्टिंग के तीसरे पड़ाव में है यानी इसे दुनिया भर में टेस्ट किया जा रहा है। कंपनियां इसे बनाने का काम शुरू करने के पहले और अधिक जानकारी जुटाने का इंतजार कर रही हैं। पारंपरिक टीकों से अलग, फाइजर वैक्सीन एक नई जेनेटिक तकनीक का इस्तेमाल कर रही है जो कि विज्ञान में सबसे आगे है।
दरअसल, एमआरएनए वैक्सीन खास होती है। सिंथेटिक एमआरएनए के इस्तेमाल से इम्यून सिस्टम सक्रिय हो जाता है और वायरस से लड़ता है। पारंपरिक रूप से, वैक्सीन बीमारी फैलाने वाले जीवाणु का एक छोटा हिस्सा इंसान के शरीर में डालती हैं। लेकिन एमआरएनए वैक्सीन हमारे शरीर से ट्रिक या यूं कहें कि चालाकी से अपने आप कुछ वायरल प्रोटीन बनवाती है।
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वैक्सीन को रखना एक चुनौती
अब तक वैक्सीन को साढ़े 43 हजार लोगों पर टेस्ट किया जा चुका है। इसमें तीन हफ्तों के अंतर में, दो खुराक देनी होती हैं। फाइजर का कहना है कि ये साल खत्म होने के पहले 5 करोड़ खुराकें तैयार की जा सकती हैं, और उनका मानना है कि साल 2021 में और 1.3 अरब खुराकें तैयार हो जाएंगी।
खैर, जानने और सुनने में ये सब कुछ बहुत अच्छा लगता है, लेकिन वैक्सीन उपलब्ध होने के बाद इसे बांटना एक चुनौतिपूर्ण होगा। बड़े-बड़े अस्पतालों से लेकर गांव के छोटे-छोटे समुदायों तक वितरण करना चुनौती होगी।
वैक्सीन 6 महीनों तक चल सके, जाहिर है इसके लिए इसे -70 डिग्री सेल्सियस या इससे कम तापमान पर रखना होगा, जिसमें ढ़ेर सारी ऊर्जा और पैसा लगेगा। उसके लिए एक मजबूत कोल्ड चेन इन्फ्रास्ट्रक्च र तैयार किये जाने की आवश्यकता। उम्मीद है कि वैक्सीन उपलब्ध होने के बाद वितरण के लिए हर देश में खास योजना बनायी जा रही होगी। (आईएएनएस)