भारत वर्ष में कई वीर वीरांगनाओं ने जन्म लिया। किसी ने राजा बन कर तो किसी ने सिपाही बन कर देश की सेवा की। किन्तु जिन भारत के सपूतों को विदेशों में मिसाल के तौर पर पढ़ाया जा रहा है आज स्वयं भारत की भावी पीढ़ी ने उन्हें भुला दिया है। वामपंथी विचारधारा और एक एजेंडे वाली सोच के भीतर हिंदुस्तान का उज्वल इतिहास कहीं ओझल सा हो गया है। भारत के वीरों ने हाइफा में भी कुछ ऐसे ही शौर्य को दिखाया था। ऐसी गौरवशाली घटनाओं को भारत के युवाओं से क्यों सालों तक छुपाया गया, और अगर छुपाया नहीं तो बताया क्यों नहीं गया। ‘दलपत सिंह शेखावत’ यह नाम आज भी कईयों से अनजान है।
कौन थे दलपत सिंह शेखावत?
अंग्रेजों ने प्रथम विश्व युद्ध में तुर्क और जर्मन से लड़ने के लिए मैसूर, जोधपुर और हैदराबाद की सेना को भेजा गया था। मगर हैदराबाद सेना में अधिकांश मुस्लिम होने की वजह से तुर्कों के खिलाफ लड़ने से रोक दिया। मैसूर और जोधपुर के सैनिकों को युद्ध का आदेश दिया गया। इस युद्ध में सेना का नेतृत्व मेजर दलपत सिंह शेखावत और अमन सिंह जोधा ने किया| दलपत सिंह राजस्थान के पाली जिले के देवली पाबूजी के निवासी थे और अपने पिता जागीरदार ठाकुर हरि सिंह के इकलौते पुत्र थे जिन्हें तत्कालीन जोधपुर नरेश ने अध्ययन के लिए ब्रिटेन भेजा था| वे महज 18 वर्ष की आयु में जोधपुर लांसर में घुड़सवार के रूप में शामिल हुए और बाद में वे सेना में मेजर बने |
23 सितम्बर 1918 को दलपत सिंह और अमन सिंह जोधा की नेतृत्व में भारत के वीरों ने जर्मन मशीनगनों को तलवार और भालों से पछाड़ दिया था। वह सभी जिस तरह तुर्कों और जर्मन सैनिकों पर टूटे थे उसकी गूंज आज भी हाइफा की हवाओं में महसूस की जा सकती है। उनका शौर्य इस तरह सर चढ़ कर बोल रहा था कि 1 घंटे के भीतर-भीतर दुश्मनों को खदेड़ कर 400 साल पुराने गुलामी को अंत किया था। इस लड़ाई में भारत के 44 सैनिक शहीद हुए और साथ ही मेजर दलपत सिंह भी इसी युद्ध में शहीद हो गए थे।
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हाइफा को गुलामी से मुक्त कराने के साथ-साथ 1350 दुश्मन सैनिकों को बंदी बनाया और उनके तोप व गोला बारूदों पर कब्जा कर लिया। इसी के साथ एक नए राष्ट्र के निर्माण का रास्ता खुल गया जिसे हम इज़रायल के नाम से जानते हैं।
कहाँ है हाइफा?
हाइफा वर्तमान में इजराइल का तीसरा सबसे बड़ा शहर है। हाइफा की जंग में शहीद हुए जवानों के सम्मान में इजराइल के बच्चों को हाइफा युद्ध के वीरों के किस्से स्कूली पाठ्य पुस्तकों में पढ़ाए जा रहे हैं| 2012 में हाइफा नगरपालिका ने ओटोमन तुर्कों के शासन से हाइफा को मुक्त कराने वाले भारतीय वीरों के सम्मान में यह निर्णय लिया कि इस युद्ध को स्कूली पाठ्य पुस्तकों में पढ़ाया जाएगा।