‘भारत’ एक ऐसा देश है जहाँ हर जीव में भगवान को ढूंढा जाता है, जहाँ हर चौराहे पर मंदिर या मज़ार के दर्शन हो जाते हैं। शायरों के महल्लों से लेकर गंगा की पौड़ी तक कण कण में धर्म छुपा है। आरती और अज़ान को एक जैसी भक्ति के साथ ही सुना जाता है।
मगर विश्व के पटल पर हम खुदको धर्मनिरपेक्ष कहते हैं और अपने खुद के देश में धर्म पर लड़ाई की बात करते हैं।
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आज का दौर इस मोड़ पर खड़ा है कि मेरा मंदिर जाना उसे पसंद नहीं और तेरा मज़्जिद में कदम रखना मुझे गवारा नहीं| हम एक दौड़ में इस कदर फस चुके हैं कि खाई में कूदना भी अब समझदारी मानी जाएगी। दोस्तों यह दौड़ है ‘अंधेपन’ की जिसमे सही गलत का न तो कोई नाम है और न ही कोई मुकाम, बस चले जा रहे हैं। भगवा रंग एक धर्म का प्रतीक हो गया हरा रंग एक की पहचान बन गई, मगर किसी ने यह न सोचा की आज ज़रूरत किसकी है रंग की या उन सिक्कों की जिनसे असल ज़रूरतें पूरी होती हैं।
मगर अब तो इन सिक्कों का भी इस्तेमाल नफरतों को भड़काने में किया जाता है, किताबों की जगह पत्थर को थमाया जाता है। उन भटके होंठों से जेहादी नारे लगवाए जाते हैं, जिन्हे अब तक यह तक न पता है कि आगे चलकर यही धर्मनिरपेक्ष देश की बात करेंगे।
एक ऐसा तबका भी इस बीच खूब सुर्खियों में रहा जो आज़ाद देश को फिर से आज़ाद कराने के प्रयास में नारे बुलंद करता रहा। वह उन वीरों के बलिदान को भूलने की गलती कर गए जिन्होंने इस देश को ‘अंग्रेज़ों’ से आज़ाद कराया था। राजनीति के दलदल में इस कदर सीने तक धस गए कि उन्हें पता ही न चला की देश के लिए कह रहे हैं या विरोध में।
हाल ही में भारत के प्रधानमंत्री ने श्री राम जन्मभूमि का शिलान्यास किया था, उस जन्मभूमि की जिसके लिए न जाने कितने दंगे हुए न जाने कितनी जाने गईं मगर अंत में वही हुआ जो सर्वोच्च न्यायलय का फैसला था। मगर मज़े की बात यह है कि अभी भी एक राजनीतिक दल की तरफ से यह टिप्पणी आई की “अयोध्या में मस्जिद था, है और रहेगा”, अब क्या हम इसे ओछी राजनीति कहेंगे? या सर्वोच्च न्यायलय के फैसले की अवमानना कहेंगे? याद करें कि इसी राजनीतिक दल ने उस टुकड़े टुकड़े गैंग का साथ दिया था जिस पर देश विरोधी नारे लगाने का आरोप है। और तो और एक राजनीतिक दल भी इस देश में मौजूद है जिसका मानना था कि श्री राम हैं ही नहीं, उनका कोई प्रमाण ही नहीं है।
धर्म पर वाद-विवाद इस देश की पौराणिक रीत है, मगर जब भी उजागर होती है तो नए सिरे शुरू होती है।