हम सभी जानते हैं कि, अंग्रेजों ने 200 वर्षों तक हम पर शासन किया था और भारत को ब्रिटिश राज से मुक्त कराने के लिए हमारे स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा शुरू किए गए आंदोलनों और उनके बलिदानों ने हमें स्वतंत्रता दिलाई और 1947 को पूर्ण रूप से हमारा देश, एक स्वतंत्र देश बन गया। हमारे अंदोलांजिवियों द्वारा किए गए संघर्ष और बलिदान, आज भी हमें देशभक्ति और संघर्ष की याद दिलाते हैं। कुछ स्वतंत्रता सेनानियों को तो आज भी याद किया जाता है जैसे, महात्मा गांधी, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह आदि। लेकिन आज भी कई स्वतंत्रता सेनानी अनसुने नायक बने हुए हैं।
भारत को स्वतंत्रता दिलाने के इस संघर्ष में हमें महिलाओं के योगदान को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। आजादी के लिए भारत का संघर्ष उन महिलाओं के उल्लेख बिना अधूरा है, जिन्होंने भारत को आजादी दिलाने में अपने हौसलों को कभी कमजोर नहीं पड़ने दिया। तो आइए आज इस लेख के माध्यम से भारत की पहली महिला स्वतंत्रता सेनानी की बात करते हैं। जिन्होंने निडरता, बुद्धि और साहस के साथ अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया था।
कित्तूर की रानी चेनम्मा (Rani Chennamma), ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ, सशस्त्र विद्रोह का नेतृत्व करने वाली पहली भारतीय महिला थीं। इनका जन्म 23 अक्टूबर 1778 को कर्नाटक, भारत के बेलगावी जिले के एक छोटे से गांव में हुआ था। बचपन से ही चेनम्मा को घुड़सवारी, तलवारबाजी में कौशल प्राप्त था। अपनी बुद्धिमानी और बहादुरी के लिए वह पूरे गांव में जानी जाती थीं। 15 साल की उम्र में उनका विवाह, कित्तूर के राजा मल्लसरजा देसाई (Mallasarja Desai) से हुआ और वह कित्तूर की रानी बनीं। परन्तु 1816 में उनके पति की मृत्यु हो गई और इस दुख से रानी चेनम्मा उभर पाती, इससे पहले 1824 में उनके पुत्र की भी मृत्यु हो गई।
जिसके पश्चात कित्तूर की रानी के रूप में रानी चेनम्मा ने, शिवलिंगप्पा नाम के एक लड़के को गोद ले उसे उत्तराधिकारी बनाने का फैसला लिया। लेकिन ब्रिटिशों (British) को उनका यह कदम बिल्कुल पसंद नहीं आया और उन्होंने रानी को आदेश जारी किया कि, आप शिवलिंगप्पा को सिंहासन से निष्कासित कर दें। लेकिन रानी ने, ब्रिटिश आदेश को ठुकरा दिया। जिसके कारण एक भीषण युद्ध की स्थिति ने जन्म लिया।
1824 में अंग्रेजों और कित्तूर (Kittur’s ruler) के बीच पहली लड़ाई लड़ी गई। हालांकि, इस युद्ध में ब्रिटिशों को भारी नुकसान का सामना करना पड़ा था। युद्ध के दौरान रानी चेनम्मा के सैनिकों ने दो ब्रिटिश अधिकारियों को बंधक बना लिया। आगे के विनाश और युद्ध को रोकने के लिए यह कदम उठाया गया था। बाद में ब्रिटिशों की सहमति के साथ युद्ध पर विराम लगा और वादे के अनुसार बंधकों को भी छोड़ दिया गया था।
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लेकिन हमेशा से धोखा देते आए इन ब्रिटिशों ने उस वक्त भी धोखा दिया और अपने वादे से मुकर गए। अपनी हार का बदला लेने के लिए ब्रिटिशों ने एक बार फिर कित्तूर पर हमला कर दिया। 12 दिनों तक चेनम्मा और उनके सैनिकों ने लगातार अपने किले की रक्षा करने के लिए, अंग्रेजों से लड़ते रहे। अंतिम सांस तक उन्होंने हार नहीं माना। लेकिन चेनम्मा को उनके अपने ही सैनिकों द्वारा छला गया और ब्रिटिशों ने रानी चेनम्मा को बंधक बना लिया था।
ऐसा माना जाता है कि, रानी चेनम्मा ने अपने जीवन के अंतिम पांच वर्ष, किले में कैद होने के बावजूद भी, पवित्र ग्रंथों को पढ़ने और पूजा करने में बिताए थे। ब्रिटिशों की कैद में ही उन्होंने 21 फरवरी 1829 को अंतिम सांस ली थी।
रानी चेनम्मा को उनकी वीरता के लिए आज भी याद किया जाता है। भले ही वह अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध को जीत नहीं सकी थीं। लेकिन भारत के स्वतंत्रता सेनानियों के लिए एक प्रेरणा का स्त्रोत अवश्य बन गई थीं।