“स्त्री विमर्श” की एक झलक!

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By : Swati Mishra

कोई भी समाज कितना सभ्य है ,इसका अनुमान उस समाज में रहने वाली स्त्रियों को स्तिथि से लगाया जा सकता है । क्यूंकि , “सभ्यता ढूंढती नहीं अशिष्टत , नम्रता है उसका स्वरूप”। 

स्त्री विमर्श , स्त्री मुक्ति , नारीवादी आंदोलन किसी भी माध्यम से विचार किया जाए तो इसका, एक ही लक्ष्य रहा, स्त्री के अस्तित्व व उसके मौलिक रूप को स्थापित करना और अपनी इसी जीवंतता की खोज में स्त्रियों द्वारा चलाए गए आंदोलनों की गहराई ने समाज को अंदर तक झकझोर कर रख दिया था। स्त्री विमर्श की लड़ाई किसी एक पुरुष से नहीं बल्कि पुरुष प्रधान समाज से थी, जहां ये धारणा थी कि स्त्रियां कृतदासी हैं एवं उनके अधीन रहने को लाचार है। इसी दोयम दर्जे की सोच के विरुद्ध स्त्री विमर्श खड़ा हुआ था। 

संघर्ष चाहे था बड़ा , धेर्य कभी टूटा नहीं । (सांकेतिक चित्र, Unsplash)

नारी चिंतन का विषय आधुनिक नहीं है परंतु यह प्राचीन काल से चला आ रहा है । वैदिक काल में स्त्रियों की स्तिथि बेहतर मालूम पड़ती है । अभिलेखों से पता चलता है की उस समय नारियों को पुरुषों के समान स्थान प्राप्त थे। धर्म कार्यों , राज कार्यों, दान दक्षिणा में नारियों को पूर्ण दायित्व था ।

प्राचीन पश्चिमी इतिहास , जहां प्लेटो – अरस्तू जैसे महान चिंतक हुआ करते थे , उन्होंने भी स्त्रियों को , कोई विशेष महत्व नहीं दिया था , लेकिन उसी काल के मार्क्स द्वारा नारी के प्रति दृष्टिकोण में बड़ा परिवर्तन देखने को मिला था । 

उन्नीसवीं सदी में चल रहे समाज – सुधार ने स्त्रियों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक बनाया। परन्तु नारी की आवाज़ को कुचल डालने को तत्पर इस समाज ने उसे “Feminist” , ” नारीवादी” का दर्ज़ा दे डाला । “Feminism”  शब्द 1880 के दशक फ्रांस में उभरा । आज के संदर्भ में , नारी के अधिकार , उसके विषय पर बात करना , हक के लिए आवाज़ उठाना ही ” Feminism” है अर्थात ‘नारीवाद’ है । 

स्वतंत्रता पूर्व 1918 में मिले मताधिकार के अधिकार ने उन्हें राष्ट्र पटल पर खड़ा कर दिया था , जिससे उनके आंदोलन को मजबूती मिली थी। परंतु नारीवादी संघर्ष की लड़ाई जितनी लंबी थी ,उतनी ही पीड़ादायक ! सावित्री बाई फुले , रमाबाई आदि स्त्रियों को अपने आंदोलन को राष्ट्रवादी आंदोलन के बीच से अपना स्वरुप तलाशना पड़ा था। उनके संघर्ष की लड़ाई भले ही कितनी लंबी रही हो , परंतु उनका धेर्य और संयम ही था , जिसकी जीत आज हर नारी वर्ग महसूस कर सकती है ।

स्त्री विमर्श सदैव पुरुषसत्तात्मक समाज की अन्यायपूर्ण व्यवस्था के विरोध में खड़ा हुआ था । समय के साथ – साथ पुरुषों का पुरुषार्थ स्वार्थ का प्रतिरूप बनता चला गया , जिसने समाज में स्त्री संबंधी कई रूढ़िवादी परंपराएं धरातल पर ला खड़ी की थी , जिनमें “सती प्रथा” , शव परीक्षा आदि जेसी क्रूर परंपराएं सम्मिलित है । लेकिन क्रूरता अपनी चरम सीमा पर तब पहुंची जब , खुद को सती कर चुकीं राजस्थान की “रूपकुंवर सती” को देवी का स्थान प्रदान किया गया। 

आज नारी विमर्श , एक राष्ट्र , धर्म जाति भर का आंदोलन नहीं है । बीसवीं सदी में इसने एक नया रूप धारण किया, “Liberal femenism” ये कहता है कि नारी भार ढोने में उन्निश हो सकती है , परंतु बौद्धिक और नैतिक क्षमता एक है। 

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एक बात और जानने योग्य है की, पुरुषप्रधान समाज में सभी की मानसिकता एक समान नहीं थी । स्त्री के साथ होने वाले अन्यायों के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत स्त्रियों ने तो दिखाई ही थी लेकिन कुछ स्तिथि में पुरषों द्वारा भी प्रयास किए गए थे जिनमे ” राजा राम मोहन राय” , ” इश्वरचंद्र विद्यासागर ” , “दया नंद सरस्वती” जी का नाम आज भी सम्मान पूर्वक याद किया जाता है ।

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