कौन है रियाज़ नायकू?
कश्मीर के आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन का आतंकी कमांडर बुरहान वाणी 2016 में भारतीय सेना द्वारा मार गिराया जाता है, जिसके बाद सूबे में आतंकवादी गतिविधियों की कमान रियाज़ नायकू के हाथ में सौंपी जाती है।
पुलवामा के बेगपोरा का रहने वाला रियाज़ नायकू हिजबुल मुजाहिद्दीन का ‘ऑपरेशनल कमांडर’ अर्थात एक कुख्यात आतंकवादी था। कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाने की चाह रखने वाले रियाज़ ने घाटी में अनगिनत आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम दिया। इस पूर्व ‘शिक्षक’ रियाज़ नायकू के आदेश पर सेना के जवानों की हत्या, पुलिस के परिवार को अगवा करना, खबरी होने के शक पर आम कश्मीरियों का गला रेत कर मार देने जैसे कई कृतघ्न अपराधों को अंजाम दिया जाता रहा है।
6 मई को भारतीय सेना, सीआरपीएफ, और कश्मीर पुलिस के जॉइंट आपरेशन में इस आतंकवादी को मार गिराया गया।
एक आतंकवादी की कहानी इतनी ही लिखी जानी चाहिए । उसके आतंकवादी बनने का पहला दिन, उसके कुकृत्य की लंबी लिस्ट और उसका अंतिम दिन। इसके अलावा उसके आतंकी बनने के पहले का इतिहास, उसकी नौकरी, घर की आर्थिक स्थिति, 10वीं और 12वीं में आएं अंक, उसकी हॉबी या ऐसी कोई भी बात, बेतुकी है जिसका औचित्य शून्य के बराबर है। ना ऐसी बातों को लिखा जाना चहिये, ना पढ़ा जाना चाहिए। ऐसा करना, सुरक्षाबलों के उन शहीद हुए जवानों का अपमान है और उनकी बलिदानी का मज़ाक बनाने के बराबर है।
रियाज़ नाइकू की मौत पर मीडिया रिपोर्टिंग
लेकिन कुछ मीडिया संस्थानों ने आतंवादियों के मानवीय पक्षो को दिखाने का ठेका ले रखा है। जिनकी मैं बात कर रहा हूँ, ये कोई छोटे नहीं बल्कि बड़े और प्रतिष्ठित संस्थान हैं। एक आतंकवादी के मानवीय पक्ष जैसे उसने किसको मुफ्त में पढ़ाया, और उसके क्या शौक हुआ करते थे जैसी बातें बता कर, ऐसा दिखाने का प्रयास किया जाता है जैसे मरने वाला कोई आतंकी नहीं बल्कि गैलेंट्री पुरुष्कार से समान्नित वो व्यक्ति है जिसने देश के लिए अपनी बलिदानी दी हो।
ऐसी रिपोर्टिंग करने वालों में वामपंथी मीडिया पोर्टल, दी वायर, हफिंगटन पोस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स, अलजजीरा, रॉयटर्स, जैसे कई नामी गिरामी संस्थान शामिल हैं।
दी वायर नाम के ऑनलाइन मीडिया पोर्टल ने रियाज़ नायकू के मरने के बाद एक रिपोर्ट छापी है जिसके हैडलाइन में रियाज़ को आतंकवादी नहीं ‘ऑपरेशनल चीफ’ बता कर संबोधित किया जा रहा है। आप कहेंगे की ये तो संगठन में उसका रैंक है, तो ये बताने में गलत क्या है? जी, बिल्कुल गलत नहीं है, लेकिन दिलचस्प बात ये है की लेखक द्वारा इस पूरे आर्टिकल में रियाज़ नायकू के लिए आतंकवादी शब्द का प्रयोग एक बार भी नहीं किया गया है। क्या लेखक से लिखने में कोई चूक हुई है? क्या लेखक, लिखना भूल गया या ना लिखने के पीछे कोई मंशा रही होगी?
दी वायर के ही एक दूसरे आर्टिकल में किसी 47 वर्षीय खतीजा का हवाला देते हुए लिखा जाता है की किस तरह सीआरपीएफ वाले, रियाज़ की मौत पर मातम मनाने आये लोगों को हटा रही है। खतीजा कहती है की, “हम अपना सम्मान व्यक्त करने आये हैं, नायकू हमारे बेटे जैसा था”।
सम्मान? एक आतंकी के लिए?
इस बात को मान भी लिया जाए की रियाज़, खतीजा के बेटे जैसा था और उसे उसके मरने पर दुख हुआ होगा। लेकिन एक कुख्यात आतंकी से जुड़ी ऐसी कहानी दुनिया तक पहुंचाने का औचित्य क्या है?
सीधे शब्दों में लिखा जाए तो वायर अपने आर्टिकल के ज़रिये ये बताने की कोशिश कर रहा है की रियाज़ नाइकू एक आतंकी नहीं बल्कि ऑपरेशनल चीफ था, जिसके लिए लोगों में सम्मान की भावना है, और आम लोग उसमे अपने बेटे की छवि देखते हैं।
इसके अलावा रॉयटर्स ने रियाज़ के बारे में अपने ट्वीट में लिखा है,
“वोद्रोही बने पूर्व गणित शिक्षक को सुरक्षा बलों ने मार गिराया।”
2018 में हफिंगटन पोस्ट ने भी एक आर्टिकल छापी थी जिसमे कुख्यात आंतकी रियाज़ नाइकू को गणित का शिक्षक बताते हुए इसकी मानवीय छवि जैसे पेंटिंग का शौख, गरीबों को मुफ्त मे पढ़ाना, लोगों की मदद करना, 12वीं कक्षा में आये अंक, जैसे कई बातों का 11 पेजों में विस्तार से वर्णन किया गया था।
अमरीका के न्यूयॉर्क टाइम्स ने आतंकवादी तो दूर, उसे ‘मिस्टर नाइकू’ और ‘हिजबुल मुजाहिद्दीन’ का ‘वरिष्ठ नेता’ कह कर संबोधित किया है। जब कि हिजबुल मुजाहिद्दीन को अमरीका पहले ही एक आतंकवादी संघठन घोषित कर चुका हैं।
न्यूयॉर्क टाइम्स अगर हिंदी अखबार होता तो शायद ‘माननीय नाइकू साहब’ कह कर भी संबोधित करता।
वहीं अलजजीरा भी इसे आतंकवादी नहीं ‘रिबेल कमांडर’ कह कर सम्भोदित करता है। आर्टिकल में बताया जाता है की किस तरह 100 लोगों के मारे जाने(आतंकवाद के खिलाफ सेना की कार्यवाही में मारे गए लोग) के बाद रियाज़ विद्रोही बन कर संगठन में शामिल हो जाता है। अलजजीरा बार बार उसे ‘रिबेल फाइटर’, ‘पूर्व गणित शिक्षक’, ‘सीनियर कमांडर’ कह कर संबोधित करता रहता है। आर्टिक्ल में सेना की क्रूरता और उसके कारण पैदा हुए नफरत का एक दृष्टिकोण पेश करने की कोशिश लगातार की जाती है।
2016 में मरे हिजबुल के आतंकवादी बुरहान वाणी का विकिपीडिया प्रोफइल एक शाहिद सेना के जवान के माफिक बनाया गया है। जिसमे रैंक, कमांडर लिखा गया है, तो वहीं ‘बैटल/वार्स’ के श्रेणी में ‘कश्मीर संगर्ष’ लिखा गया है।
ऐसी रिपोर्टिंग का क्या है मकसद?
ऐसा करने के पीछे एक तय एजेंडा होता है और इसे योजना के तहत आगे बढ़ाया जाता है।
इसको समझने के लिए आपको ये समझना होगा की जंग दो जगह चल रही है, एक कश्मीर में जमीनी स्तर पर, और दूसरी जंग देश भर में, राजनीतिक और मानसिक स्तर पर। जमीनी स्तर पर लड़ने के लिए क्षेत्रीय लोग हैं तो वहीं देश और राजनीतिक स्तर पर लड़ने के लिए एक बड़ा सपोर्ट सिस्टम तैयार करने के मकसद से ऐसी मीडिया रिपोर्टिंग की जाती है।
इस पूरे सिस्टम को टुकड़ों मे समझिए (जमीनी स्तर)
1.पाकिस्तान के फण्ड पर स्थानीय लोगों द्वारा एक संगठित रूप से सेना पर पथराव किया जाता है, सेना के जवान घायल होते है, और कइयों को अपनी जान भी गंवानी पड़ती है। लेकिन इस पर मीडिया का एक गुट शांत बैठ कर सही समय आने का इंतज़ार करता है।
2. सेना जैसे ही इन पत्थरबाजों पर जवाबी कार्यवाही करती है, उस पर मीडिया का यही गुट एक्शन में आ जाता है। बड़ी रिपोर्ट चलायी जाती है, बड़े बड़े आर्टिकल छापे जाते हैं। सेना की कार्यवाही को क्रूर और अमानवीय बताने की एक मुहिम शुरू होती है।
3. आतंकी संगठन से जुड़े लोग और स्थानीय नेता, आम लोगों को भड़काते हैं। सेना की ‘कश्मीरियों पर क्रूरता’ का हवाला देते हुए आज़ाद कश्मीर और भारत के खिलाफ जंग में उनकी भागीदारी मांगते हुए लोगों को उकसाया जाता है।
4. ऐसे माहौल में कई युवा वर्ग के लोग हिजबुल मुज़हिद्दीन जैसे आतंकि संगठनों से जुड़ जाते हैं।
5. आज़ाद कश्मीर के लिए ‘जंग’ के नाम पर सेना पर लगातार हमले किये जाते हैं। बम से उड़ा देना, गोली बारी करना, गला रेत कर मार डालने जैसे कामों को एक तय और संगठित रूप से अंजाम दिया जाता है। अंग्रेजी में इसे ‘प्रॉक्सी वॉर’ कहते हैं, अर्थात पाकिस्तान की सेना सीधे तौर पर भारत से भिड़े बिना आतंकियों के ज़रिये भारत को चोट पहुंचाने का काम करती है।
6. ऐसे में जब इन्ही में से किसी कुख्यात आतंकी को सेना द्वारा मार गिराया जाता है, तो सेना पर पहले से भड़के हुए लोग (तीसरे बिंदु को पढ़े) जो उस आतंकी को अपना नायक मान चुके थे, अब उस आतंकी के समर्थन में सड़कों पर आ जाते हैं, सेना पर पत्थर चलते हैं और फिर से सेना को जवाबी कार्यवाही करने पर मजबूर होना पड़ता है। और फिर यही कहानी फिर से दोहराई जाती है।
ऊपर लिखी बिन्दुवें ज़मीनी स्तर पर हो रही गतिविधियों को बयां करती है, लेकिन उसी वक़्त कश्मीर के बाहर देश के अन्य भागो में भी उन आतंकियों के समर्थन मे एक हवा बनाने की कोशिश चल रही होती है।
इस पूरे सिस्टम को राष्ट्रिय स्तर पर समझिए
जब सेना किसी आतंकवादी को मार गिराती है, तो ‘पत्थरबाजों पर सेना की जवाबी कार्यवाही’ को क्रूर और अमानवीय बताने वाली उसी मीडिया का गुट अपनी पूरी क्षमता का ज़ोर लगा कर मरे हुए आतंकी का इतिहास बताने मे लग जाता है। लगातार आतंकवादियों की मानवीय छवि दिखाने की कोशिश की जाती है।
कभी हेडमास्टर का बेटा, तो कभी गणित का शिक्षक। मुफ्त में गरीबों को पढ़ाने वाला मसीहा बताया जाता है तो कभी ये दिखाने पर ज़ोर होता है की, आम जनता के दिलों मे उसके लिए बहुत सम्मान है। कभी कभी ऐसे लोगों को भी ढूंढ लिया जाता जो उस मरे हुए आतंकी को अपने बेटे जैसा बता रहा होता है।
क्या एक आतंकवादी से जुड़ी ये जानकारी लोगों तक पहुंचना इतना ज़रूरी है? जवाब है नहीं। लेकिन ऐसा करने की ज़रूरत क्यूँ पड़ती है?
जब ये मीडिया संस्थान आतंकवादी का इतिहास, मानवीय छवि और उसके आतंकी बनने के पीछे का कारण बता रहा होता है, उस वक़्त देश के करोड़ो युवा इसे पढ़ और देख रहे होते हैं।
इन करोड़ों में से कई ऐसे होते हैं जो राजनीति को अच्छी तरह से समझते हैं, और उन पर ऐसे प्रोपगैंडा आधारित विश्लेषणों का कोई असर नहीं होता, लेकिन उनमे से एक वर्ग स्कूल-कॉलेजों में पढ़ने वाले उन युवाओं का भी होता है जो राजनीति की समझ कम रखते हैं, या ऐसी घटनाओं पर उनका तब ही ध्यान जाता है जब इसकी चर्चा हर तरफ होने लगे, मतलब की जब कुछ ट्रेंडिंग हो।
दिमाग पर ऐसी रिपोर्टिंग का असर
इन ‘फ्रेश माइण्ड्स‘ के दिमाग के साथ खेलना बहुत ही आसान होता है। जब ये लोग ऐसी रिपोर्ट पढ़ते हैं जिसमे एक शिक्षक की कहानी बताई जा रही हो की किस तरह उसे अपनी आम ज़िंदगी का त्याग कर बंदूक उठाने पर मजबूर होना पड़ा था।
या ऐसी कहानियाँ जिसमे वो कुछ बनना चाहता था , लेकिन कश्मीरियों पर सेना की क्रूरता देख उसने आम लोगों की रक्षा के लिए बंदूक उठा लिया।
ऐसी कहानियाँ ये मीडिया चैनल ‘कथित तौर पर’ बता कर सुना डालते हैं। लेकिन ऐसी कहानियाँ लोगों के जहन मे उतर जाती है। ऐसी कहानियाँ लोगों के अंदर संवेदनाएँ पैदा करती है।
ये लोग, बार-बार ऐसी रिपोर्ट पढ़ कर, ये सोचने पर मजबूर हो जाते हैं की, क्या कश्मीर की जंग सच में भारतीय सेना की क्रूरता से आज़ादी की जंग है? मन मे सवाल आने लगता है की, ये आज़ादी क्या है? सेना पर चलने वाले पत्थरों को नज़रअंदाज़ कर मन ये सवाल करने लगता है की जवाबी कार्यवाही मे सेना लोगों पर पेलेट क्यूँ चला रही है? पत्थर चलाने वाले, आम लोग लगने लगते हैं। बंदूक चलाने वाले क्रांतिकारी दिखने लगते हैं।
मन सवाल करने लगता है की आखिर क्या मजबूरी रही होगी एक शिक्षक की, जो उसे बंदूक उठाने पर मजबूर होना पड़ा होगा। वो व्यक्ति, उस मारे गए आतंकी और अपने अंदर समानताएँ ढूंढने लगता है। उसे लगने लगता है की ये भी उसके जैसा ही एक आम व्यक्ति है जिसे पेंटिंग का शौख है, जो धोनी का फ़ैन है, लेकिन मजबूरीयों ने उसे ऐसा बना दिया।
ये सोच, समय के साथ और मजबूत होता जाता है। जो व्यक्ति आतंकी के मरने पर कभी खुश हो रहा था वो अगली बार दुखी होने लगता है। फिर ये दुख गुस्से मे तब्दील होता है। सेना की कार्यवाही क्रूर लगने लगती है। अब सेना की जीत मे उसे खुद की हार नज़र आने लगती है। आतंकी की मौत, एक क्रांतिकारी की हत्या प्रतीत होती है। अब वो व्यक्ति कश्मीर को आज़ाद देखना चाहता है।
एक समय आता है जब वो व्यक्ति सेना को गाली देने तक में नहीं हिचकिचाता है। भारतीय सेना के खिलाफ गुस्सा कब सरकार की तरफ मुड़ जाता है ये पता भी नहीं लगता।
इस गुस्से का, समय आने पर राजनीतिक दलों द्वारा प्रयोग किया जाता है। लेकिन तब तक ऐसे मीडिया पोर्टल्स समय दर समय लगातार लोगों में खबरों के ज़रिये जहर डाल कर गुस्से को जीवित रखते हैं।