By: अभिषेक कुमार
“हमें डर है, हम खो न जाएं कहीं”
अभी तक की कहानी पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें –
काश यूँ हुआ होता : कहानी जयनाथ मिसरा की (भाग-1)
काश यूँ हुआ होता : कहानी जयनाथ मिसरा की (भाग-2)
असल में मनमोहन अपने पिता के पास इंग्लैंड जाना चाहता था। विदेश में अपनी किस्मत आज़माई का इच्छुक था। इसी नाते कैलाश उसे अपनी फैक्ट्री में काम करने का प्रस्ताव भी दे चुका था। जिसके बाद मनमोहन भी इंग्लैंड चला गया। सुशीला ने ना तो अपने पति को रोका था और ना ही अपने बेटे के सपनों पर कोई बेड़ी बाँधी। किन्तु सुशीला के अलावा कोई और भी था जिसके मन की छलनी से यह घटना छन कर धुँधली पड़ चुकी यादों को फिर से पेंट कर रही थी।
जब कैलाश विदेश गया था तब उन दिनों जयनाथ को कोई ख़ास सुध ना थी। वो फ़क़त 10 महीने का था। पर आज उसका विकसित दिमाग परिवार की दरख़्त की कटी डालियों को देख सकता था। पत्तों के झड़ जाने से डालियों में उठी उस तीखी टीस को सुन सकता था। माँ की चुप्पी में खौल रहे अकेलेपन को महसूस कर सकता था। कॉलेज के दिनों में उसकी भावनाओं में इसी तरह के बदलाव हो रहे थे। जिन बातों ने उसे कभी परेशान नहीं किया, वही बातें उसके भीतर कैलाश के लिए बेरुखी अंकुरित कर रही थीं। 20 साल बीत गए…पर जयनाथ अभी तक अपने पिता के स्नेह से अछूता था।
बस अब बहुत हुआ। अब और नहीं! जयनाथ अब और चुप नहीं बैठ सकता। उसके दिमाग में अपने पिता को लेकर हज़ारों सवाल आ रहे थे। हर सवाल ख़लाओं में कुछ देर भटकता और फिर खाली हाथ लौट आता। घनघोर बियाबान में कुछ देर दरिया को ढूंढता फिर प्यासा तड़प उठता। बीहड़ ख्यालों में कुछ देर भागता फिर हांफ कर बैठ जाता। जयनाथ ने अपनी इसी बेचैनी में कैलाश को एक पत्र लिखा। वो पत्र अंग्रेज़ी में लिखा गया था। पत्र में सिर्फ सवाल थे। एक बेटे के अपने पिता से सवाल – बेटे ने पिता से घर लौट आने का आग्रह किया था। ऐसे दो तीन और पत्र भारत से इंग्लैंड भेजे गए। लेकिन कैलाश ने किसी भी खत का जवाब देना ज़रूरी ना समझा। जयनाथ के पास उस समय अपने चित को शांत करने का एक ही तरीका शेष था। उसने वही रास्ता अपनाया। वो लखनऊ जाकर पासपोर्ट के लिए अप्लाई कर आया था। उसका मन अपने पिता से मिलने को अधीर था।
मामला अटका कि पासपोर्ट के लिए एक गारंटर की ज़रूरत पड़ेगी। विदेश जाने के लिए पैसों की आवश्यकता भी लाज़िमी है। यह कहाँ से आए? जयनाथ अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाने लगा। उसकी समझ में कुछ ना आ रहा था। तभी उसने सड़क पर इश्तिहार देखा। दिल्ली से हरी सिंह एंड संस का इश्तिहार था। मात्र 600 रुपए में देश की बयार से लंदन तक के सफर की गारंटी थी। बशर्ते सफर कुली क्लास में होगा। पानी के रास्ते से ‘ मेसजरीस मैरीटाइम्स ‘ नाम की फ्रेंच शिपिंग कंपनी का जहाज लंदन जा रहा था। इस ख़ुशनुमा खबर ने उसके दिमाग को हिरण किया और उसने विदेश में बैठे अपने पिता को ही गारंटी के रूप में रख दिया। किस्मत ने साथ दिया और पासपोर्ट के लिए आवेदन पास हो गया। सारा खेल अब हरी सिंह एंड संस के लिए 600 रुपए जमा करने का था। इस मामले में उसे अपने सुरेश चाचा से कोई उम्मीद ना थी। निरंजन तो जयनाथ को देखते ही अपना रास्ता बदल लिया करता था। जयनाथ कहीं पैसे ना मांग ले इस डर से निरंजन अपने छोटे भाई के साथ एक ही कमरे में खड़े होने से बचने लगा। इन सब बातों से जयनाथ के हौसले कहाँ मुंह लटकाने वाले थे। उसने अपनी किताबें बेच दीं; तीन सौ हाथ लगे। बाकी तीन सौ के लिए उसने अपनी माँ से कहा। माँ ने अपने बेटे को रोकने की सोची पर उसी माँ ने हाथों से अपने सोने के कंगन उतार कर बेटे की हथेली पर रख दिए। उस दिन जयनाथ को कमरे से बाहर निकलता देख सुशीला का मन उसे रोकना चाह रहा था। सुशीला ने अभी तक परिवार के लोगों को विदेश जाता ही देखा था किसी को लौट कर आता नहीं। उसके अनकहे शब्द हमेशा की तरह उसी के दिल में डूब कर अपनी जान गवा बैठे। कुछ कहने और कुछ छुपाने के बीच में वह हर बार खुद को बेबस पाती। हर बार बेबसी की चोली से झूठी ख़ुशी चेहरे पर पोत कर अपने बच्चों के सामने चली आती। ऐसी ही थी सुशीला। अपने से पहले अपनों का सोचना उसका मूल स्वभाव था।
अभी तक की कहानी पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें –
काश यूँ हुआ होता : कहानी जयनाथ मिसरा की (भाग-1)
काश यूँ हुआ होता : कहानी जयनाथ मिसरा की (भाग-2)
उधर कंगन बेचकर जयनाथ की पॉकेट में चार सौ रुपए विराजित हो गए। यानी लंदन जाने के लिए जेब में सात सौ रुपए हो गए थे। उसे इंतिज़ार था पासपोर्ट आने का। इसके लिए वो हर महीने लखनऊ पासपोर्ट ऑफिस में जाकर घंटो बैठता। करते – कराते, आठ – नौ महीनों बाद पासपोर्ट हाथ लग ही गया। पासपोर्ट के लिए मनमोहन को भी इतने ही चक्कर लगाने पड़े थे। हाँ मगर…उसके लिए पैसों का इंतिज़ाम कैलाश ने खुद कर दिया था।
कुछ दिनों बाद जयनाथ दिल्ली पहुंच गया; हरी सिंह एंड संस के पास। लंदन जाने की पक्की खबर के साथ ही घर लौटा। तुरंत ही अपने बड़े भाई को पत्र लिखा कि वो लंदन आ रहा है। दो हफ्ते ऐसे बीते जैसे सांप के शरीर से खाल निकली हो। आख़िरकार वो दिन आ ही गया जब मिसरा परिवार का तीसरा चिराग भी अपने वतन की मिट्टी को सदा के लिए छोड़ने वाला था। तय हुए समय पर जयनाथ बॉम्बे पहुंच गया। सामने विशालकाय जहाज उसका इंतिज़ार कर रही थी। लोगों की उधड़-बुन में दबता बचता हुआ जयनाथ जहाज के अंदर गया। उसके पास ज़्यादा सामान नहीं था। जेब में 50 रुपए थे, साथ में दो-तीन जोड़ी कपड़े और दिमाग में बड़े भाई के घर का एड्रेस। कुली क्लास में पहुंचते ही अजीब सी गंध से उसका सामना हुआ। इसी गंध में उसे अगले दस दिन बिताने थे। कोने में खाली जगह देख कर वो चुप चाप बैठ गया।
सुहाना सफर, और ये मौसम हसीं – मधुमती फिल्म का यह गीत गुनगुनाता हुआ नीले चप्पल वाला पतला सरदार बोट के चारों ओर चक्कर लगा रहा था। हमें डर है…हम खो ना जाएँ कहीं – इतना कह कर सरदार दो कदम और कूद पड़ा , गिरते गिरते बचा…फिर बोल पड़ा – सुहाना सफर और यह मौसम हसीं! 1958 में सिनेमा घरों में दस्तक देने वाली फिल्म मधुमती के गाने तब 1960 में भी लोगों के ज़हन में ज़िंदा और ताजा थे। जयनाथ पगड़ी धारी को बे-तकल्लुफ़ नज़र से घूर रहा था। उसके अलावा सरदार की ताल पर कुली क्लास की पूरी आवाम थिरक रही थी। देखते ही देखते रात हो गई। खाना आया। रोटी का पहला निवाला लेते ही जयनाथ ने आधे गले से ही रोटी उगल दी। इतना खराब खाना उसने पहले कभी नहीं खाया था। उसके बगल बैठे प्रिंट शर्ट वाले ने पहला निवाला निगल लिया था। रोटी का दूसरा टुकड़ा तोड़ नहीं पाया।
जयनाथ नीचे गिरे निवाले को उठा रहा था…”दालमोट खाओगे”- प्रिंट शर्ट वाले ने पूछा।
दोनों ने उस रात दालमोट खा कर ही अपना पेट भरा। सोने के लिए वहां हर दो खंबों से कपड़े की लम्बी चादर टंगी हुई थी। रात बीतने लगी। सरदार सपने में भी गुनगुना रहा था – सुह…फर, ये खाना…खरा..र र.ब…! अगले दिन भी पेट पूजा के लिए दालमोट ही वरदान बना। जयनाथ को लगा कि ऐसे तो काम नहीं बनेगा। फिर दोनों नौजवानों ने थोड़ा साहस दिखाया और साफ़ सुथरे कपड़े पहन कर ऊपर वाले फ्लोर पर चले गए। वहां ऊँचे दर्जे के लोग थे। या दर्जा जो भी हो कुली क्लॉस वालों से ज़्यादा ही पैसे दिए थे। इन दोनों की जवानी बियर की कांच की बोतल से जा टकराई। जयनाथ के पास 50 रुपए थे। दूसरे नौजवान के पास भी पैसे थे ही। दोनों ने मिल कर दो बियर की बोतल खरीदी। नीचे आए और गटक गए। 21 साल के जयनाथ ने पहली बार कुछ इस तरह के सुरूर का सामना किया था। हाल यह हुआ कि वो अपने सारे दुःख दर्द भूल कर उमंगों की ठिठोली में मस्त हो गया। उसकी आँखों में मछलियां तैर रहीं थीं। ठंडी हवा जब उसके बालों को उड़ाती तब उसे प्रेम का एहसास होता। उस प्रेम का जिसे वो बुलंदशहर के एक घर में छोड़ आया था। जिसके कंगन बेच कर उसने लंदन के लिए थैला बाँधा। इस तरह से वो अपने दर्द से दूर गया या उसके और नज़दीक, यह कहना मुश्किल है।
अभी तक की कहानी पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें –
काश यूँ हुआ होता : कहानी जयनाथ मिसरा की (भाग-1)
काश यूँ हुआ होता : कहानी जयनाथ मिसरा की (भाग-2)
इसी मदहोशी में दस दिन कैसे बीत गए पता ही ना चला। बोट का गंतव्य फ्रांस था। वहां पहुंच गई। वहां से दूसरी बोट आई। जो लोगों को फॉक्सटन ले गई। फॉक्सटन पहुंचने में इन्हें दो घंटे लगे। वहां से लंदन के लिए ट्रेन पकड़नी थी।
कुछ घंटे बाद जयनाथ लंदन के विक्टोरिया स्टेशन पर खड़ा था। उसने अपने भाई को खत में खुद के आने की खबर दे ही दी थी। बस बड़े भाई के आने की देरी थी। घड़ी की सुई…टिक…टिक…टिक…टिक… टिक…आगे बढ़ रही थी। बड़े भाई का कुछ पता नहीं था। बगल से नीली चप्पल वाले वही पतले सरदार गाते हुए निकले – “सुहाना सफर और ये मौसम हसीं, हमें डर है, हम खो न जाएं कहीं…!”
क्या मनमोहन स्टेशन पर आएगा? आख़िर कब, कहाँ और कैसे होगी जयनाथ और कैलाश की पहली मुलाक़ात?