1971 का चुनाव वो चुनाव था जब गांधी/नेहरू परिवार की वंशज अर्थात जवाहरलाल नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी, प्रचंड बहुमत के साथ जीत हासिल कर दोबारा से प्रधानमंत्री बनी थी। उस चुनाव में ‘गरीबी हटाओ’ का नारा देने वाली इंदिरा गांधी ने 518 में से 352 संसदीय सीटें जीती थी।
इस चुनाव के करीब 4 साल बाद वो दिन आया जब इंदिरा गांधी ने वो फैसला लिया जिसकी वजह भारत आज भी उस दिन को ‘लोकतंत्र’ के इतिहास का सबसे काला दिन मानता है। वो तारीख थी 25 जून 1975, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पूरे देश में आपातकाल की घोषणा की थी। एक झटके में देश के लोगों से उनके अधिकारों को छीन लिया गया, प्रेस पर पाबंदी लगा दी गयी, रेडियो सेंसर कर दिया गया, और विरोध में बोलने वाले हर व्यक्ति को ,बिना कारण बताए गिरफ्तार कर, जेल में ठूसा जाने लगा। लाल कृष्ण आडवाणी से लेकर जय प्रकाश नारायण जैसे कई बड़े नेताओं को उस वक़्त जेल जाना पड़ा था।
आपातकाल लगाने के पीछे का कारण?
बक़ौल इंदिरा गांधी, आपातकाल लगाने की वजह भारत में फैली ‘आंतरिक अशांति’ बताई गयी थी। लेकिन सच्चाई इसके विपरीत है। दावों के अनुसार 1975 के समय, इंदिरा गांधी को, हाथ से सत्ता के जाने का डर सताने लगा था। 1971 में लगभग दो तिहाई सीटें जीतने वाली इंदिरा गांधी को आखिर कुर्सी जाने का डर क्यूँ सता रहा था। इसका जवाब 1971 के ही चुनाव में छुपा हुआ है।
1971 का चुनाव इंदिरा गांधी ने रायबरेली से लड़ा था और उनके खिलाफ खड़े थे संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के नेता, राजनारायण। हालांकि,राजनारायण चुनाव तो हार गए लेकिन उसके बाद शुरू हुई एक कानूनी जंग, जिसने प्रधानमंत्री इंदिरा को अपनी कुर्सी बचाने के लिए आपतकाल लगाने पर मजबूर कर दिया।
1971 के चुनाव के बाद की कहानी।
1971 में रायबरेली से चुनाव हारने के बाद संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के प्रत्याशी राजनारायण ने इंदिरा गांधी के खिलाफ इलाहाबाद हाइकोर्ट में याचिका दायर की थी। उस याचिका में राजनारायण ने इंदिरा गांधी पर कई बड़े आरोप लगाए थे। जिनमे से भारत सरकार के अधिकारी और अपने निजी सचिव यशपाल कपूर को पद पर रहते हुए अपना इलैक्शन एजेंट बनाना, चुनाव प्रचार के लिए वायुसेना के विमानों का दुरुपयोग करना, चुनाव से पहले क्षेत्र में मतदाताओं को शराब बंटवाना, और निर्धारित सीमा से ज्यादा पैसे खर्च करने जैसे गंभीर आरोप शामिल थे।
इस याचिका पर 4 साल सुनवाई होने के बाद 12 जून 1975 को, इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी पर लगे ‘चुनाव में सरकारी उपकरणों के दुरुपयोग’ के आरोप को सही ठहराते हुए, 6 साल तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया।
इस फैसले के बाद विपक्ष ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से इस्तीफ़ा माँगना शुरू कर दिया। जिसके बाद इंदिरा गांधी ने 23 जून 1975 को इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर किया। हालांकि इस फैसले को पलटा तो नहीं गया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर ने 24 जून 1975 को आखिरी फैसला आने तक इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री पद पर बने रहने की तत्कालीन राहत दे दी।
सूप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद विपक्ष का रुख
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आते ही विपक्ष के नेताओं ने इंदिरा गांधी के खिलाफ एक जुट होना शुरू कर दिया। 25 जून 1975 का दिन था जब दिल्ली के रामलीला मैदान में एक भव्य रैली का आयोजन किया गया। उस रैली में लोक नायक जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, चंद्रशेखर, मोरारजी देसाई जैसे कई विपक्ष के दिग्गज नेता मौजूद थे। इस रैली में जय प्रकाश नारायण ने रामधारी सिंह दिनकर की कविता की पंक्ति, “सिंघासन खाली करो की जनता आती है” को भी दोहराया था। इस रैली के बाद इंदिरा गांधी के खिलाफ उठ रहे विद्रोह के सुर, और मजबूत हो गए, जिसने इंदिरा गांधी को बहुत डरा दिया।
25 जून, 1975 की ही रात प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद से आपातकाल लगाने के आदेश पत्र पर हस्ताक्षर करा लिया। बताया जाता है की आपातकाल लगाने के निर्णय को लेकर कोई भी जानकारी, इंदिरा गांधी, संजय गांधी और राष्ट्रपति के अलावा किसी और को नहीं थी। मंत्रियों को भी इसकी जानकारी अगले सुबह बुलाई गयी बैठक में दी गयी थी।
बैठक के बाद, इंदिरा गांधी ने ऑल इंडिया रेडियो से देश के नाम संबोधन किया था, जिसमे उन्होने देशवासियों को जानकारी देते हुए कहा था की, देश में फैली आंतरिक अशांति के वजह से राष्ट्रपति ने आपातकाल की घोषणा कर दी है। इस घोषणा के साथ ही एक झटके में लोगों के अधिकारों को छीन लिया गया, मीडिया(अखबारों) पर प्रतिबंध लगा दिये गए, और विरोधियों को कुचला जाने लगा। आपातकाल लगाए जाने के तुरंत बाद ही विपक्ष के सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था, जिसके विरोध में और भी घमासान मचा। विरोध में उठने वाले हर सुर को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने दबाने की कोशिश की। पुलिस को आपातकाल के नाम पर, बिना वजह बताए, किसी को भी गिरफ्तार करने की छूट मिल गयी थी। बताया जाता है की एक वक़्त ऐसा आया, जब हालात ऐसे हो गए थे की जेल में कैदियों को रखने की जगह कम पड़ने लगी थी। रिपोर्ट के मुताब़िक, आपातकाल के दौर में करीब 11 लाख लोगों की राजनीतिक गिरफ्तारी की गयी थी।
आपको बता दें की न्यायपालिका को आपातकाल की न्यायिक समीक्षा करने का हक़ होता है। लेकिन उस वक़्त, इंदिरा गांधी की सरकार ने, 22 जुलाई 1975 को संविधान में संशोधन कर आपातकाल की न्यायिक समीक्षा और प्रधानमंत्री के निर्णयों की जांच का अधिकार न्यायालय से छीन लिया था।
आपातकाल का अंत
विपक्ष के नेताओं के नेतृत्व में देशवासियों ने आपातकाल का पूर्जोर विरोध किया था। हालांकि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी उनके विरोध में उठ रहे सुरों को कुचलने का हर संभव प्रयास किया था, लेकिन देश के सामने आखिर 2 साल बाद इंदिरा गांधी को झुकना ही पड़ा। 21 मार्च 1977 को आपातकाल खत्म करने की घोषणा क गयी।
24 मार्च, 1977 को इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफ़ा दे दिया। उसी साल लोक सभा के चुनाव हुए और इंदिरा गांधी ने अपनी रायबरेली की सीट गँवा दी। इंदिरा गांधी को चुनाव में शिकस्त देने वाले और कोई नहीं बल्कि जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ कर जीतने वाले वही राजनारायण थे जिन्हे 1971 में इंदिरा गांधी ने उसी रायबरेली की सीट से हराया था। जिसके बाद किस तरह उन्होने इंदिरा के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ी, इसकी कहानी तो आपने पढ़ ही ली है।
जहां से कहानी शुरू हुई, वही इसका अंत भी हुआ।