श्रीमद्भगवद्गीता और अज़ान पर क्यों अटकाई गई सूई?

श्रीमद्भगवद्गीता और अज़ान पर अब नई बहस छिड़ी हुई है। शिवसेना के नेता पांडुरंग सकपाल ने अज़ान प्रतियोगिता के आयोजन की पेशकश की थी। साथ ही यह तर्क दिया कि गीता पढ़ने की प्रतियोगिता हो सकती है अज़ान की क्यों नहीं।

0
397
Bhagavad Geeta Gita painting Bhagvat Gita
(Wikimedia Commons)

हाल ही में शिवसेना ने एक नए मुद्दे को जन्म दिया है। जिसमे शिवसेना के ही नेता पांडुरंग सकपाल का यह कहना है कि उन्हें अज़ान पढ़ने की प्रतियोगिता का सुझाव आया था और उन्हें यह सुझाव अच्छा भी लगा। साथ में यह तर्क भी पेश किया कि अगर श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ने के प्रतियोगिता का आयोजन हो सकता है तो अज़ान का करने में कोई पशोपेश नहीं रहना चाहिए। चौकाने वाली बात यह रही की शिवसेना ने अपने ही नेता के सुझाव से खुद को किनारा कर लिया और ऐसी किसी प्रतियोगिता होने को अस्वीकार किया। किन्तु जब इस सुझाव को पांडुरंग सकपाल ने सबके सामने डिजिटल माध्यम से रखा तब एनसीपी नेता नवाब मलिक ने इसको अपना समर्थन दिया।

अगर किसी ने अज़ान की तुलना श्रीमद्भगवद्गीता से की है तो इसका स्पष्टीकरण करना हमारा दायित्व है। क्योंकि चाहे जितनी बार हम खुद को धर्मनिरपेक्ष कह लें मगर संस्कृति और संस्कृत के बारे में ज्ञान होना आवश्यक है क्योंकि अज़ान और श्रीमद्भगवद्गीता में जमीन आसमान का अंतर है। दोनों के अर्थ को देखने के लिए गहराई में जाएंगे तब एक नए पहलु को अपने सामने पाएंगे। वह इसलिए क्योंकि अज़ान में यह साफ-साफ लिखा है कि “अश-हदू अल्ला-इलाहा इल्लल्लाह” जिसका हिंदी अनुवाद यह है कि “मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह के सिवा कोई दूसरा इबादत के काबिल नहीं”; “अल्लाहु अकबर-अल्लाहु अकबर” अनुवाद यह है कि “अल्लाह सबसे महान”। किन्तु श्रीमद्भगवद्गीता में यह कहीं नहीं लिखा है कि एक धर्म और एक ही भगवान है। चाहे विष्णु हों या महेश हों आपकी जिसमे श्रद्धा है आपको उन्हें पूजने का अधिकार है। बल्कि श्रीमद्भगवद्गीता, महाभारत महाकाव्य की उपकथा है जिसमे कलयुग में और गृहस्त में आने वाली बाधाओं और उनके समाधान को बताया गया है।

यह भी पढ़ें: सैफई महोत्सव की जगह भव्य दीपोत्सव, क्यों समय लग गया अपनी संस्कृति को समझने में?

“सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥” यह श्रीमद्भगवद्गीता के अट्ठारवें अध्याय का 66वां श्लोक है जिसका भावार्थ यह है कि “संपूर्ण धर्मों को अर्थात संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा। मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर!” अब इन पंक्तियों को पढ़कर कुछ बुद्धिजीवियों का यह तर्क भी होगा कि यहाँ पर भी परमात्मा को सर्वशक्तिमान कहा गया है। इसका भी जवाब श्रीमद्भगवद्गीता के चौथे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में दिया गया है:

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: || 11||

जिसका भावार्थ यह है कि “हे पृथानन्दन ! जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण आते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग का अनुकरण करते हैं।” रामकृष्ण परमहंस जी ने बड़े सुलझे ढंग से इस श्लोक का भावार्थ प्रस्तुत किया है कि “ईश्वर किसी एक धर्म का नहीं है, सभी धर्म ईश्वर के हैं। आप सभी रास्तों के माध्यम से उससे संपर्क कर सकते हैं, सभी धर्म उसी की ओर ले जाते हैं। अलग-अलग दृष्टिकोणों में एक ही चीज़ के अलग-अलग विचार होंगे, एक दृश्य दूसरे को अमान्य नहीं करता है।”

श्रीमद्भगवद्गीता यह कभी नहीं कहता कि अल्लाह महान है या राम, किन्तु यह जरूर बताता है कि अच्छे कर्मों से आप दोनों को ही पा सकते हो। एक ही भगवान को महान कहना हिन्दू धर्म नहीं सिखाता क्योंकि सिख, जैन, बुद्ध और अन्य कई धर्म हैं जो हिंदुत्व से जन्मे हैं। तुलनात्मक टीका-टिप्पणी करना किसी के लिए भी आसान काम है। किन्तु सवाल यह कि सही कौन?

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here