टेरर या आतंकवाद को जब भी धर्म से जोड़ दिया जाता है, तब एक विवाद की उत्पत्ति होती है। क्योंकि हिन्दू टेरर या भगवा आतंकवाद ‘शब्द’ एक ही पार्टी की देन है।
क्या मुंबई में 26/11 आतंकी हमला हिन्दुओं ने किया था? क्या बंटवारे की पहल हिन्दुओं ने शुरू की थी? कहीं भी कोई भी आतंकवादी हमला होता है ; चाहे वह कश्मीर घाटी में हो या मुंबई के ताज में, तब किस पर सवाल किए जाते हैं?
आपका जवाब मुझे पता है क्या होगा, किन्तु उस जवाब को अगर खुलकर किसी के सामने कह भी दिया तो अंजाम बुरा होने की चेतावनी मिल जाएगी। क्योंकि भगवा आंतकवाद या हिन्दू टेरर जैसे जवाब तो आप दे सकते हैं, और कोई कुछ नहीं कहेगा मगर एक धर्म है, जिसके विषय में हम अपना मुँह नहीं खोल सकते क्योंकि इस देश में एक तबका है जिसे संस्कृति से या कहें कि हिन्दुओं से चिढ़ है।
मुंबई पुलिस के पूर्व कमिश्नर राकेश मारिया की आत्मकथा में यह दावा किया गया है कि पाकिस्तान की खुफ़िया एजेंसी ISI ने मुंबई में हुए हमले को हिन्दू आतंकवाद का कहर साबित करने की कोशिश की थी। जिसका प्रमाण यह है कि सभी 10 आतंकवादियों के पास हिन्दुओं के नाम से फ़र्ज़ी आईकार्ड मौजूद थे। किन्तु यह इसलिए सफल नहीं हो पाया क्योंकि उनमे से एक आतंकी ‘कसाब’ को पुलिस ने धर-दबोचा था और उसने यह स्वीकार कर लिया था कि वह पाकिस्तानी नागरिक है।
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वहीं कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ही वह व्यक्ति है जिसने ‘हिन्दू टेररिज्म’ या ‘भगवा आतंकवाद’ जैसे शब्दों का सबसे पहले प्रयोग किया था और यहां तक की वह ‘आर.एस.एस की साजिश-26/11’ किताब के विमोचन में भी गए थे। जिसमें इस आतंकी हमले का कसूरवार सी.आई.ए, मोसाद और आर.एस.एस को ठहराया गया।
कभी कोई असहिष्णुता का राग अलाप कर देश छोड़ने की बात करता है। कभी टीपू सुल्तान की जयंती मनाने पर विचार करता है। वही टीपू सुल्तान जिसने न जाने कितने लाखों हिन्दुओं को मरवा दिया था, हाथी के पैरों तले कुचलवा दिया था। यदि इस धर्मनिरपेक्ष देश के एक बड़े विश्वविद्यालय में महिषासुर शहीदी दिवस मनाया जा सकता है, तब कुछ भी हो सकता है। आज उस कश्मीर में शांति है जहाँ कभी आतंकी के जनाज़े में लाखों जुटते थे, क्योंकि अब वहां कोई भ्रम फ़ैलाने वाला नहीं है।
मत
आज की राजनीति ने धर्म को वोटबैंक बना दिया है, ऐसा ‘मैं’ नहीं बल्कि तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोग कहते हैं। लेकिन यह बात कुछ हद तक सही भी है क्योंकि जब एक ईमाम या पादरी किसी एक पार्टी को अपना समर्थन देता है तो वह अपने अनुयायियों को भी उसी पार्टी के कंधे पर हाथ रखने के लिए उकसाता है। किन्तु, हिन्दू धर्मगुरुओं ने कभी भी किसी पार्टी के लिए वोट नहीं मांगा। समर्थन देना और वोट मांगना बहुत दूर तक मेल नहीं खाता।