बंगाल चुनाव के नतीजे रविवार देर शाम घोषित किए गए, जिसमें बहुमत के साथ जीतते हुए ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने 213 सीट पर बढ़त बनाई। वहीं बंगाल चुनाव में हर संभव पैतरों के इस्तेमाल के बावजूद भी भारतीय जनता पार्टी 76 सीट जीतने में सफल रही और लेफ्ट एवं कांग्रेस गठजोड़ का तो मानो पत्ता ही साफ हो गया, वह एक भी सीट जीतने में सफल नहीं रही।
कुछ समय से Bengal Election 2021 को दो मुख्य पार्टियों ने अपनी साख का मुद्दा बना लिया था। एक के बाद एक रैलियां, जय श्री राम एवं जय माँ दुर्गा के नारे, ‘खेला होबे’ या ‘खेला शेष’, तुम बाहरी- हम भीतरी, यह सभी हथकंडे इसी लड़ाई का हिस्सा थे। पहली बार बंगाल में द्वी-पक्षीय सरकार बनी है, इनका मतलब कि बंगाल विधानसभा में दो मुख्य पार्टियां ही उपस्थित रहेंगी। तो क्या इस चुनाव को जीतने का श्रेय जनता को जाता है, ममता बनर्जी को?
श्रेय किसको?
यह तो मानना पड़ेगा कि इस चुनाव में सभी पार्टियों ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया था, कांग्रेस, लेफ्ट और अन्य दलों को छोड़ कर दोनों पार्टियों ने अपना दम-खम दिखाया, जिसका नतीजा भी दिखा है। और यह भी मानना जरूरी है कि ममता बनर्जी एवं तृणमूल कांग्रेस बंगाल की मनो-दशा को गहराई से जानती है। इसलिए टीएमसी ने अपने घोषणा पत्र में कुछ ऐसे वादे किए जो लुभावने भी थे और एक समुदाय विशेष पर केंद्रित भी थे।
मुस्लिम वोट टीएमसी को गया: एक तरफ जहाँ भाजपा यह कह रही थी कि हिन्दू वोट हमारी तरफ है वहीं मुस्लिम वोटरों का पूरा ध्यान टीएमसी पर रहा, जिसका यह भी कारण है कि असदुद्दीन औवेसी की पार्टी एआईएमआईएम भी कोई कमाल नहीं दिखा पाई। माना यह जा रहा था कि औवेसी की पार्टी वोटकटवा के रूप में नजर आएगी मगर बंगाल की जनता का मूड इस बार दो ही पार्टियों पर केंद्रित रहा था।
मतुआ एवं महिसिया समुदाय का तृणमूल को समर्थन देना: मतुआ और महिसिया समुदाय पर भाजपा को अच्छी पकड़ होने की कामना थी, मगर मतुआ एवं महिसिया समुदाय बहुल इलाके में तृणमूल की ही जीती है। जिसका भी कारण है घोषणा-पत्र जिसमें इस समुदाय को ओबीसी श्रेणी में जोड़ने की बात कही गई थी।
ममता बनर्जी का इमोशनल सिक्का: आपको याद होगा कि चुनाव प्रचार के दौरान ममता बनर्जी को पैर में चोट लग गई थी। जिस वजह से वह कुछ समय तक या कहिए परिणाम घोषित होने तक व्हीलचेयर के सहारे पार्टी मीटिंग्स एवं रैलीयों में पार्टी का प्रचार करने उतरीं थीं। उस समय उन्होंने यह आरोप लगाया था कि उन्हें यह चोट भाजपा के कार्यकर्ताओं द्वारा एक षड्यंत्र के जरिए लगी है। और व्हीलचेयर पर बैठे-बैठे ‘खेला होबे’ का नारा भी दिया था। बहरहाल जैसे ही चुनाव परिणाम घोषित हुए, ममता बनर्जी ने कुर्सी यानि व्हीलचेयर छोड़ने का फैसला भी कर लिया।
दल-बदल के बावजूद मजबूत दिखी टीम टीएमसी: चुनाव से पहले कई नेता तृणमूल पार्टी छोड़ भाजपा में शामिल हो गए थे। किन्तु इसका फायदा भी चुनाव परिणाम में तृणमूल को ही होता दिखा है। ऐसा इसलिए क्योंकि जिन 16 प्रत्याशियों ने तृणमूल का साथ छोड़ भाजपा का हाथ थामा था वह अपनी-अपनी सीट से हार गए हैं। किन्तु इस दल-बदल का नुकसान ममता बनर्जी को हुआ क्योंकि जिस सीट से वह चुनावी रण में उतरीं यानि नंदीग्राम से, उस सीट से वह हार गईं । वह सीट जीता है तृणमूल छोड़कर भाजपा में आए नेता शुभेंदु अधिकारी ने। नंदीग्राम को शुभेंदु का गढ़ भी कहा जाता है।
इन सभी कारणों के साथ एक और भी कारण है जिसे बंगाल में तृणमूल की जीत का कारण माना जा रहा है। वह कारण है ‘डर’, क्योंकि जिस तरह से तृणमूल कांग्रेस पर बम फेंकने, राजनीतिक हत्याएं करने के आरोप लग रहे थे, उसका फायदा तृणमूल को कहीं न कहीं डर के रूप में दिखा है।
भाजपा की बम्पर सीटों पर जीत
अब तक हम बात कर रहे थे तृणमूल कांग्रेस की किन्तु इस चुनाव में जो दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है वह है भारतीय जनता पार्टी जो 76 सीट जीतने में सफल रही। यह जीत भारतीय जनता पार्टी के लिए इसलिए अहम है क्योंकि 2016 के बंगाल विधानसभा चुनाव में भाजपा मात्र 3 सीट ही जीती थी। 3 सीट से 76 सीट जीतने के पीछे कई अहम कारणों को माना जा रहा है।
यह भी पढ़ें: हिन्दू विरोधियों को नहीं मिली सत्ता की कुर्सी!
सबसे पहले बंगाल में सीएए को लागु करने के लिए भाजपा पहले ही वादा कर चुकी थी। जिस वजह से उसे उन जगहों पर भी फायदा हुआ जहाँ से इसे लागु कराने की मांग तेज थी। अयोध्या राम मंदिर आज भाजपा की यूएसपी बन चुकी है उन्हें भी इस्तेमाल किया गया। मगर बाहरी और भीतरी के लपट-जाल में भाजपा इतना कमाल नहीं दिखा पाई जितना हमने प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के रैली एवं रोड-शो में देखा था।
शुभेंदु अधिकारी की जीत ने जहाँ एक तरफ भाजपा में ढांढस बंधाया है वहीं इस नतीजे ने उसे 2024 लोक-सभा के लिए तैयार रहने का आश्वासन भी दिया है।
हार का कारण
देश में कोरोना महामारी अपने चरम पर है जिस वजह से बंगाल चुनाव के दौरान केंद्र सरकार पर देश के ऊपर ध्यान न देने का आरोप भी लगाया गया था। इसका खामियाजा भी भाजपा को बंगाल चुनाव के साथ-साथ अन्य राज्यों के विधान-सभा चुनाव में उठाना पड़ा है।
भाजपा के हारने की वजह में एक और घटना शमिल है, वह है दूसरे दलों से आए नेता। जिस वजह से पुराने नेताओं को किनारा कर दिया गया। यही अनदेखी बंगाल चुनाव के परिणाम में भी देखने को मिली है। दूसरे दलों से आए नेताओं में से 16 इस बार चुनाव नहीं जीत पाए। यह उन सीट पर भाजपा के प्रत्याशी थे जो कभी तृणमूल में उसी सीट से जीतकर विधानसभा में आए थे।
कांग्रेस और लेफ्ट का न चलना भी भाजपा की हार का अहम कारण है क्योंकि यह लड़ाई द्विपक्षीय ही रह गई थी। ना लेफ्ट सीट खिसका पाई और ना ही कांग्रेस जिसका पूरा फायदा तृणमूल कांग्रेस को हुआ है।
बंगाल चुनाव जीतने के बावजूद भी ममता बनर्जी अब चुनाव आयोग के खिलाफ कोर्ट में जाने की बात कर रहीं हैं। बहरहाल नतीजें आ गए हैं, लहर की लड़ाई खत्म हो चुकी है। अब देखना यह है कि तृणमूल कांगेस के शासन में क्या-क्या बदलाव आएंगे?