‘खिचड़ी ढाबा’ सामाजिक संस्था गूंज की एक खास पहल है, ताकि कि लोग भूखे न रहें और ढाबा चलाने वाले लोग अपनी आजीविका को दुबारा पटरी पर ला सकें। इस तरह के ढाबे और भी राज्यों में संचालित हैं, साथ ही इसे दूसरी जगहों पर खोलने की भी तैयारी है। गूंज की ग्राउंड रिपोर्ट बताती है कि गूंज की पूरी कोशिश है कि हम लोगों के साथ जितना संभव हो सके खड़े हों। कोरोना से पूरा देश त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रहा है। इसकी दूसरी लहर में शायद ही ऐसा कोई हो, जिसने अपनो को ना खोया हो। ऐसे में जरा सोचें, उन इलाकों में रहने वाले लोगों की क्या दशा होगी, जो कोविड के साथ ही चक्रवाती तूफान के चपेटे में हैं। हम बात कर रहे हैं ओड़िशा की, जहां के लोगों के लिए इन दोनों चुनौतियों से पार पाना आसान नहीं है। बीते दिनों, यहां पर आए भयंकर चक्रवाती तूफान यास ने बहुत कुछ चौपट कर दिया है। इस चक्रवात ने बड़े पैमाने पर खेती किसानी वाली जमीन को बर्बाद किया, पोल्ट्री फार्म, मछली फार्म और दूसरे जलस्रोतों को भी तहस-नहस किया, जिसका सीधा असर यहां के लोगों की आजीविका पर पड़ा है।
तटीय ओड़िशा के भद्रक जिले के सुदर्शनपुर की रहने वाली रंकनिधि जेना बताती हैं कि चक्रवाती तूफान ने उनका सबकुछ बर्बाद कर दिया। उनके मुताबिक, इसमें उनका कच्चा घर टूट गया है। पानी भरने से जहां उनका मिट्टी का बना चूल्हा ढह गया, वहीं उनके घर में अब कीचड़ ही कीचड़ है। अब उनके लिए दो जून की रोटी के भी लाले पड़े हैं। जल-जमाव के चलते जहां बीमारियां पैर पसार रही हैं, वहीं सांप से काटे जाने का भी डर बना हुआ है।
इस इलाके के लोगों की तकलीफ के बारे में जब सामाजिक संस्था गूंज को पता लगा तो उनके लिए एक शानदार पहल की गई। गूंज ने उनकी भूख मिटाने के लिए इस इलाके में ढाबे की शुरुआत की, जिसको नाम दिया, ‘खिचड़ी’। स्थानीय लोगों की मदद से यहां इस ढाबे का श्रीगणेश हुआ, जिसमें लोगों को मुफ्त में खाना दिया जा रहा है। इसको शुरू करने के लिए गूंज ने 250 किलो चावल, 50 किलो दाल सहित वो सारी जरूरी चीजें मुहैया कराई गईं, जिससे कि इसे शुरू किया जा सके। स्थानीय लोगों ने आलू, प्याज, टमाटर, अदरक, लहसुन सहित बर्तनों का इंतजाम किया, यहां तक कि इसे बनाने के लिए करीब 300 किलो लकड़ी भी जुटाई। अब स्थिति यह है कि यहां प्रतिदिन 250 से 300 लोग मुफ्त में खाना खा रहे हैं। हालांकि इसके रख-रखाव और संचालन में आने वाले खर्च के लिए 12 रुपये की न्यूनतम राशि भी रखी गई है, लेकिन इसकी कोई बाध्यता नहीं है।
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इस ढाबे के बारे में रंकनिधि हंसते हुए कहती हैं, “चूंकि हम गांव से बाहर नहीं जा सकते थे, इसलिए ये एक बहुत बढ़िया कोशिश है। इससे हमारी खाने-पीने की समस्या खत्म हुई और अब हम लोग अपना बाकी समय अपने घर को ठीक करने में लगा पाते हैं। इसके अलावा, अब हमें अपनी आजिविका के बारे में भी कुछ सोचने और करने का मौका मिल पाता है।” (आईएएनएस-PS)