Anna Chandy : भारत की पहली महिला न्यायाधीश

अन्ना एक ऐसी महिला थी, जिन्होंने पितृसत्ता के सामने झुकने से इंकार कर दिया था और महिलाओं के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ आवाज उठाई थी।

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Anna Chandy
अन्ना चांडी पूरे ब्रिटिश राष्ट्रमंडल में न्यायाधीश बनने वाली पहली भारतीय महिला थी। (Wikimedia Commons)

कुछ दशक पहले तक समाज में महिलाओं की स्थिति बेहद अलग थी। महिलाओं द्वारा किए गए संघर्ष को हम सभी ने पढ़ा और आज तक देखते भी आ रहे हैं। ये संघर्ष खत्म तो नहीं हुआ मगर अब इसका स्वरूप बदल चुका है। समान वेतन, समान ओहदा, समान प्रतिनिधित्व अब यह सभी मुद्दे मायने रखते हैं। लेकिन आज हम इतिहास के पन्नों में झांककर एक ऐसी महिला के बारे में बात करेंगे जो न केवल भारत में बल्कि पूरे ब्रिटिश राष्ट्रमंडल में न्यायाधीश बनने वाली पहली भारतीय महिला थी। 

अन्ना चांडी का जन्म 4 मई 1905 को त्रिवेंद्रम ( Trivandrum) में, त्रावणकोर राज्य की राजधानी में हुआ था। अन्ना एक सीरियाई ईसाई परिवार से थी। वह एक ऐसी महिला थी, जिन्होंने पितृसत्ता के सामने झुकने से इंकार कर दिया था और महिलाओं के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ आवाज उठाई थी। 

1927 में महारानी सेतु लक्ष्मी बाई ने समाज के कड़े विरोध और संघर्ष करने के बाद, त्रिवेंद्रम में महिलाओं के लिए गवर्नमेंट लॉ कॉलेज खोला था। समाज और पुरुषों के अपमानजनक रवैए के बावजूद अन्ना ने कानून में स्नातकोत्तर डिग्री के लिए दाखिला लिया था। उस समय केवल त्रावणकोर की ही नहीं पूरे केरल की वह पहली महिला थी, जिन्होंने दाखिला लिया और 1929 में डिस्टिंक्शन के साथ अपने स्नातकोत्तर डिग्री को प्राप्त किया था। आगे चलकर उन्होंने एक बैरिस्टर के रूप में अभ्यास करना शुरू किया और आपराधिक कानून में विशेषज्ञता हासिल की थी। 

अन्ना चांडी मात्र एक वकील नहीं थी। वह अक्सर अपनी सक्रियता को अदालत के बाहर भी ले जाती थीं। न्याय के लिए धर्मयुद्ध के अलावा अन्ना ने महिलाओं के उत्थान की दिशा में कदम उठाए थे। 1930 में अन्ना चांडी ने महिलाओं की उन्नति के किए एक पत्रिका प्रकाशित की थी जिसे उन्होंने “श्रीमती” नाम से संपादित किया था। मलयालम में यह पहली पत्रिका भी थी। पत्रिका के माध्यम से अन्ना ने गृह प्रबंधन, सामान्य स्वास्थ्य, घरेलू विषयों के साथ व्यापक रूप से महिलाओं की स्वतंत्रता और विधवा पुनर्विवाह जैसे अहम् मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित किया था।

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अन्ना चांडी मात्र एक वकील नहीं थी। वह अक्सर अपनी सक्रियता को अदालत के बाहर भी ले जाती थीं। (Pexel)

अपने लेख के माध्यम से उन्होंने खेतों में काम करने वाली महिलाओं के साथ होने वाले भारी मजदूरी भेदभाव पर जोर दिया और इस मुद्दे का निवारण किया था। महिलाओं को सरकारी नौकरियों में आरक्षण के लिए लड़ाई लड़ने वाली यह देश की पहली महिलाओं में से एक थीं। 1935 में उन्होंने महिलाओं को मृत्युदंड दिए जाने कानून के विरोध में भी कड़ी आवाज़ उठाई थी। 

राजनीतिक चेहरा!

एक राजनीतिक चेहरे के रूप में अन्ना चांडी 1930 में सामने आई थीं। उन्होंने इसी वर्ष सक्रिय रूप से राजनीति में जाने का फैसला लिया और SMPA (Shree Mulam Popular Assembly) के लिए चुनाव में खड़े होने का फैसला किया था। लेकिन उनके विरोधियों ने राज्य में दीवान और अन्य सरकारी अधिकारियों के साथ संबंध होने का झूठा आरोप लगाते हुए, त्रिवेंद्रम की दीवारों पर भद्दे चित्र और नारे लिखे। जिस वजह से इन झूठी अफवाहों को जीत मिली और वह उस दौरान चुनाव में हार गई थीं। लेकिन उन्होंने रण छोड़ा नहीं, आगे भी चुनावों में एक जाना – माना चेहरा बनके उभरती रहीं और कई सीटें जीती।

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आगे चलकर अन्ना देश की पहली महिला जज बनी। उन्हें त्रावणकोर में जज के रूप में नियुक्त किया गया था। 1937 में इस क्रांतिकारी कदम ने उन्हें फिर एक बार सुर्खियों में डाल दिया था। अन्ना ने इस पद की गंभीरता को समझा और अपना दायित्व बखूबी निभाया। भारत के स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अन्ना 1948 में जिला अदालत के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त हुईं। 1956 में केरल राज्य बनाने के लिए त्रावणकोर और कोचीन राज्यों के विलय के बाद अन्ना को 1959 में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया था , न केवल भारत में बल्कि राष्ट्रमंडल देशों के बीच यह पद संभालने वाली अन्ना पहली महिला बनी थीं। 1967 तक इन्होंने अपना पद संभाला और सेवानिवृत्ति के बाद भारत के विधि आयोग के सदस्य के रूप में कार्य किया। 

1973 में अन्ना चांडी ने “आत्मकथा” शीर्षक नाम से अपनी ऑटोबायोग्राफी भी लिखी थी और 1905 में जन्मी जस्टिस अन्ना चांडी का 1966 में 91 वर्ष की आयु में निधन हो गया था।

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