पिछले साल जब जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने पर कई लोग आक्रोश जता रहे थे, तब सैकड़ों नकाबपोशों ने पाकिस्तान का झंडा लहराते हुए श्रीनगर के एक छोटे से इलाके अंचार में सड़कों पर आग लगा दी थी और सुरक्षा बलों पर पथराव भी किया था। दंगाइयों ने कश्मीर में बड़े पैमाने पर वैसी ही हिंसा की, जैसी 2016 में हिजबुल मुजाहिद्दीन कमांडर बुरहान वानी के मारे जाने के बाद हुई थी।
एक साल बाद आईएएनएस को मिले अधिकारिक आंकड़ों से पता चला है कि ऐसा सिर्फ अंचार में ही नहीं बल्कि घाटी के कई और इलाकों में ऐसी ही घटनाएं हुंईं थी।
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पिछले साल 5 अगस्त को राज्य को केन्द्रशासित प्रदेश का दर्जा देने के बाद भी पत्थरबाजी की घटनाओं में कमी नहीं आई, लेकिन इससे होने वाली जनहानि में खासी कमी आई है। ऐसा होने के पीछे कुछ अहम कारण हैं। चूंकि इस साल कोरोनावायरस महामारी के कारण लगाए गए देशव्यापी लॉकडाउन के मद्देनजर यह तय कर पाना मुश्किल है कि पत्थरबाजी से जुड़ी हत्याओं में कमी के पीछे क्या वजह है। लिहाजा आईएएनएस ने 2019 और 2016 की पथराव की घटनाओं के दौरान हताहत हुए नागरिकों की संख्या के बीच तुलना की।
आंकड़ों से पता चलता है कि पत्थरबाजी की घटनाओं और सुरक्षाबलों के साथ हुई झड़पों के कारण हताहत हुए लोगों की संख्या 2019 में 2016 की संख्या से 94 प्रतिशत कम थी। इसी तरह, पथराव की घटनाओं के कारण घायलों की संख्या में भी 70 प्रतिशत की गिरावट आई थी।
इसी तरह 2018 और 2019 के जनवरी से जुलाई के महीनों के बीच की तुलना करें तो भी हताहतों की संख्या में 87.5 फीसदी की कमी साफ नजर आती है। जबकि उस समय ना तो राज्य में संचार पर प्रतिबंध था, और ना ही लॉकडाउन था। वहीं इन दोनों वर्षो के मार्च से नवंबर के महीने की तुलना करने पर पता चला कि पिछले साल 62 फीसदी कम मौतें दर्ज हुईं।
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इसके बाद जब 2019 और 2020 के जनवरी से लेकर मार्च तक के आंकड़ों पर नजर डालते हैं, तो इस समय में एक भी मौत का मामला दर्ज नहीं हुआ, जबकि मार्च में केन्द्रशासित प्रदेश के बड़े हिस्से में संचार सेवाएं भी शुरू हो चुकीं थीं। हालांकि इस दौरान भी पत्थरबाजी की घटनाएं तो हुईं, लेकिन कोई हताहत नहीं हुआ। इस दौरान जम्मू-कश्मीर की पुलिस ने भी पत्थरबाजों पर काफी सख्ती की है, और ऐसे करीब साढ़े तीन हजार लोगों को गिरफ्तार कर प्रदेश के बाहर कई जेलों में भेजा है।
कश्मीर पुलिस के एक अधिकारी कहते हैं, “कश्मीर में किसी पत्थरबाज या आतंकी को जब यहीं की जेल में रखा जाता है तो घरवालों के लिए उससे मिलना आसानी से संभव हो जाता है। लेकिन जब कैदी को प्रदेश के बाहर रखा जाता है, तो उसे और उसके परिजनों को समस्या होती है, क्योंकि कश्मीर के लोगों को अपनी कंफर्ट जोन से निकलकर बाहर जाना बहुत मुश्किल लगता है।” इसके अलावा दूसरे राज्यों में इनके संपर्क भी बहुत कम होते हैं, लिहाजा वे घटनाओं में उस तरह से रोल नहीं निभा पाते, जैसा वे यहां रहकर करते हैं।(आईएएनएस)