छोटे शहरों की लड़कियां (Girls) अब अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवा रही हैं। कोरोना (Corona) से पहले, उत्तर प्रदेश (Uttar pardesh) के छोटे जिलों से बड़ी संख्या में युवा लड़कियां नौकरी करने और खुद को आत्मनिर्भर बनाने के लिए बड़े शहरों में आईं। ये लड़कियां राज्य के ग्रामीण अंदरूनी इलाकों की हैं और मुकाम बनाने अपने घरों से बाहर आई हैं। इनमें से कुछ ने बिना माता-पिता की सहमति के ही ऊंची उड़ान भरने के लिए शहरों का रूख किया है।
रेणुका (Renuka) सिंह सुल्तानपुर (Sultanpur) जिले के कुडभर की हैं। वह अब एक कॉस्मेटिक स्टोर में काम कर रही है और प्रति माह 4,000 रुपये कमाती हैं।
अपनी यात्रा के बारे में बात करते हुए, वह कहती हैं, “चार महीने पहले, मैं अपनी चाची के साथ रहने के लिए आई थी, जो यहां रहती हैं। मैंने फैसला किया कि मुझे अपने दम पर कुछ करना चाहिए। मेरे माता-पिता अनिच्छुक थे और चाहते थे कि मैं शादी कर लूं। उन्हें बताए बिना, मैं नौकरी की तलाश में आ गई और देखा कि एक स्टोर को सेल्सगर्ल की जरूरत है। मैंने अप्लाई किया और चुन ली गई। मैंने अपनी चाची को इस बारे में अपने माता-पिता को न बताने के लिए मना लिया।”
रेणुका के पिता और दो भाई किसान (Farmer) हैं और वह परिवार में एकमात्र स्नातक हैं।
“मैंने एक पत्राचार पाठ्यक्रम के माध्यम से स्नातक की उपाब्धि प्राप्त की। मेरी दो छोटी बहनों ने प्राथमिक शिक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ दी और अब मां के साथ गोबर बनाती है। मैं हमेशा गांव से बाहर जाना चाहती थी।”
रेणुका के लिए, उसका वर्तमान काम उसका लक्ष्य नहीं है। “मैं अपने काम के बाद अंग्रेजी सीख रही हूं। मुझे उम्मीद है कि मैं कड़ी मेहनत करूंगी और बेहतर जॉब पा सकूंगी।”
उसके माता-पिता जानते हैं कि वह ‘कहीं काम कर रही है’ और उसकी चाची ने उसके माता-पिता को उसे लखनऊ में रहने देने के लिए मना लिया है।
शालिनी और रागिनी, दोनों बहनें भी रेणुका की तरह ही हैं।
वे बहराइच जिले के कोरी का पुरवा में एक दलित परिवार से ताल्लुक रखती हैं और पिछले साल नवंबर में लखनऊ जाने वाली बस में सवार होने के बाद पहली बार किसी बड़े शहर को देखा।
दोनों एक मल्टी-ब्रांड स्टोर में पार्ट टाइम काम कर रही हैं और पेइंग गेस्ट सुविधा में रहती हैं। जो वास्तव में एक गैरेज है जिसमें छह लड़कियां रहती हैं।
शालिनी कहती हैं, “हमारी मां को लगता है कि हम यूनिवर्सिटी (University) में अपना ग्रेजुएशन (Graduation) कर रहे हैं। उन्हें हमारी नौकरियों के बारे में कुछ भी नहीं पता है। हम पढ़ाई के इरादे से यहां आए थे, लेकिन तब हमें एहसास हुआ कि पढ़ाई में समय देने से ज्यादा जरूरी पैसा कमाना है।”
लड़कियों ने कैंसर से तीन साल पहले अपने पिता को खो दिया था और उनकी मां लड़कियों की पढ़ाई करवाने के लिए खेतों में काम कर रही हैं।
दोनों बहनों ने कहा, “मुझे यकीन है कि जब हम अपनी पहली पगार (3500 रुपये) के साथ अगले महीने अपनी मां से मिलने जाएंगे तो वह हमें माफ कर देगी। हम अपनी कमाई को बढ़ाने के लिए घंटों काम करने के बाद कुछ और काम करना चाहते हैं।”
मऊ जिले के बुनकरों के परिवार की एक छोटे शहर की लड़की शुभी भी अपना मुकाम हासिल करना चाहती हैं और वह ब्यूटी पार्लर में काम कर रही हैं।
उसने एक महीने तक बिना पैसे लिए एक स्थानीय पार्लर में काम किया, मूल बातें सीखी और फिर नौकरी करने लगी।
उसे प्रति माह 2500 रुपये मिलते हैं और उस महिला के साथ रहती हैं जो पार्लर की मालकिन हैं।
वे कहती हैं, “मैं उसके घर पर रहती हूं और वह मुझे खाना देती है।”
शुभी को चिंता है कि जब उसके पिता उसकी नौकरी के बारे में नहीं बल्कि उसकी पोशाक के बारे में जानेंगे तो क्या होगा।
“उन्हें नौकरी के बारे में जानकार अच्छा लगेगा, क्योंकि मैं केवल महिलाओं के साथ काम करती हूं। लेकिन जब वह मुझे जींस और टी-शर्ट में देखेंगे, जो कि पार्लर का यूनिफॉर्म है तो वह गुस्सा हो जाएंगे। मैं स्थिति से निपटने के लिए चिंतित हूं लेकिन मेरी ऑनर कहती हैं कि वह उनसे बात करेंगी।”
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शुभी इंटरमीडिएट (Intermediate) के बाद आगे की पढ़ाई करने के लिए अपने एक रिश्तेदार के साथ लखनऊ आ गई थी, लेकिन उसने नौकरी करने का विकल्प चुना।
शुभी अपनी नौकरी के साथ-साथ अपनी पढ़ाई जारी रखने की योजना बना रही है और बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन (Business Administration) में मास्टर करना चाहती है।
उनकी पार्लर की मालकिन राधिका सिंह कहती हैं, “शुभी जैसी लड़कियां आधुनिक भारत के बारे में सब कुछ जानती हैं। उन्होंने जीवन की सीमाओं का सामना किया है और एक नई दुनिया में जाना चाहती हैं। वे एक नए कल के लिए काम करने की इच्छुक हैं और यह उनकी सकारात्मकता है।”
–आईएएनएस