महामारी की वजह से लगे लॉकडाउन ने रिश्तों में नज़दीकियाँ बढ़ाई या घटाई, यह तो मैं नहीं कह सकता पर हाँ…इसने रिश्तों को समझने का वक़्त ज़रूर दिया है। शायद उसी की बदौलत एक बेटे ने अपने माँ-बाप को WhatsApp पर यह लिखा –
good morning,
हमेशा की तरह फैमिली ग्रुप में पापा का फूलों वाला मैसेज देख कर अच्छा लगा। एडिटिंग थोड़ी और अच्छी हो सकती थी, खैर…आज बाल दिवस है और आप लोगों ने विश भी नहीं किया ? कोई बात नहीं, मैंने भी तो आप लोगों को कभी फादर्स डे या मदर्स डे पर विश नहीं किया और मुझे पापा का जन्मदिन भी तीन में से एक बार ही याद रहता है ! और आई नो, कि मैं अब बच्चा नहीं रहा ,21 साल का हो चुका हूँ। कॉलेज से निकल चुका हूँ, पैरों पर खड़ा भी होना है, पैसे कमाने हैं, शादी करनी है ; लड़की पसंद कर सकता हूँ पर हमारे कास्ट की होनी चाहिए, फलाना ढिमकाना !
पापा आप ही कहते हैं ना कि, “तुम्हारी उम्र में, मैं पैसे कमाने लगा था। अपना सारा काम खुद ही करता था। छोटी से छोटी चीज़ का हिसाब रखता था।” वैसे यह बात तो है , मैंने आपकी हिसाबों वाली डायरी देखी है ; 1 रुपए किलो भिंडी, ढाई रुपए किलो दूध ! पर पापा आप यह क्यों नहीं समझते कि हम दो शरीर हैं, दो अलग अलग परिस्थितियों में पले-बढ़े हैं, अलग-अलग फैसिलिटीज़ मिली हैं हमें, आप गांव से शहर आए, मैं दिल्ली जैसे शहर में ही बड़ा हुआ हूँ, हम दोनों की आदतें अलग हैं, सोच अलग है, सही गलत के पैमाने अलग हैं, सपने अलग हैं, दोस्त अलग हैं, फिर ‘मैं’, ‘आप’ कैसे बन सकता हूँ ?
मम्मी, आपका बात-बात पर मुझसे लड़ जाना, मेरे दोस्तों को कोसना, या आप दोनों का मेरे नाईट आउट के लिए मना कर देना ; यह सब कब तक ? सच है कि आपने यह दुनिया मुझसे ज़्यादा देखी है, पर मैं अपनी छोटी सी दुनिया में रह रहे दोस्तों , लोगों को अच्छे से जानता हूँ। उनके साथ रहने से कुछ बुरा नहीं होगा और हुआ भी तो उसका ज़िम्मेदार मैं खुद रहूँगा, अब मैं बड़ा हो चुका हूँ , है ना ?
यह सवाल इसलिए क्योंकि आप लोगों का मुझ पर यकीन ना होना कुछ और ही बताता है। आप लोग मुझे बड़ा कहते तो हैं, पर बड़े लोगों वाली आज़ादी नहीं देते, खुद के फैसले लेने के काबिल नहीं समझते। आपका तर्क रहता है कि मैं लापरवाह हूँ, सच भी है ! उतनी ही सच्चाई इस बात में भी है कि मुझे परवाह है ; अपनी और आप लोगों की भी।
मैं जानता हूँ कि मेरे कॉलेज फीस के लिए लिया गया लोन बहुत ज़्यादा है, जानता हूँ कि पिछले हफ्ते मम्मी की तबियत खराब थी फिर भी उन्होंने चार लोगों के लिए खाना बनाया, जानता हूँ कि भाई अब बड़ा हो चुका है और उसकी पढ़ाई-लिखाई का खर्च भी सर पर है, समझता हूँ कि पापा पिछले आठ सालों से वही पुराने जूते क्यों पहन रहे हैं, समझता हूँ कि मम्मी क्यों मुझसे सब्जियां कटवाती हैं, समझता हूँ कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब मैं आपके कमरे में जाऊंगा और वहां सिर्फ आपकी तस्वीर होगी…आप लोग नहीं !
समझता हूँ …
समझता हूँ कि आप लोगों ने कभी मेरा बुरा नहीं सोचा पर क्या आप यह दावे के साथ कह सकते हैं कि आपने हमेशा मेरे लिए सही सोचा ? आपने कभी मुझे मेरे सपनों के पीछे भागने से नहीं रोका पर क्या आप कुछ सालों बाद भी मुझे बेरोज़गार देख कर चुप बैठेंगे ? किसी को आगे जाने देना और उसके साथ चलने में फ़र्क़ होता है!
उसी दूरी को कम करने की कोशिश में रहता हूँ। बस हर बार कहने कुछ जाता हूँ, कह कुछ और आता हूँ और फिर हमारे बीच तू-तू मैं-मैं शुरू ! आपके त्याग का सम्मान करता हूँ, पर क्या मेरे सम्मान का ख्याल रखना आपका फ़र्ज़ नहीं ?
वैसे…मैसेज पढ़ लिया हो तो…मम्मी…! ज़रा चाय बना देना, आज मैं अपने कमरे में नहीं, आप लोगों के साथ बैठ कर ही चाय पिऊंगा! और हाँ…आज नेहरू अंकल का बर्थडे है, whatsApp स्टोरी डाल देना।
ताली दोनों हाथों से बजती है
व्हाट्सप्प पत्र में लड़के ने माँ बाप के मत को समझने की कोशिश ज़रूर की है, मगर अपने मतलबी ढांचे में रहते हुए। इस पत्र को पढ़ते हुए हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बच्चा पैदा करना कोई उपलब्धि हो या ना हो, मगर बच्चे को अच्छे से पाल कर बड़ा करना, उपलब्धि भी है और संघर्ष भी। और मुमकिन है कि इसी भार के चलते माँ-बाप सख्त हो जाते हैं , अधिक सतर्क हो जाते हैं। यही अधिक सतर्कता मन-मुटाव को जन्म देती है।
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देखा जाए तो भारत में माँ बाप और बच्चों के बीच मोटे तौर पर इन दिक्कतों को देखा गया है –
1 . फैसले की डोर बच्चों के हाथों में नहीं होती
2 . बच्चों को उनकी प्राइवेसी नहीं मिलती
3 . माँ बाप से दोस्ती का रिश्ता नहीं होता
4 . समाज क्या कहेगा ?
समाज कुछ भी कहे। ना तो समाज हमें पालेगा और ना हम उसके बुढ़ापे की लाठी होंगे। जहाँ एक तरफ 20-21 साल में हमारे विचार इतने परिपक्व नहीं होते, वहीं दूसरी ओर उस दौरान हमारे माँ बाप के ख्याल इतने लचीले नहीं होते। यहां ताली दोनों हाथों से बजती है।