प्रहलाद पांडेय एक भारतीय राजनीतिज्ञ और मोटिवेशनल स्पीकर हैं, जिन्होंने आम आदमी पार्टी के निर्माण में योगदान दिया। इन्होंने मध्यप्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र में भी पार्टी कैडर को संगठित करने में अहम भूमिका निभाई। प्रहलाद पांडेय लाइफ एंड लीडरशिप कोच होने के साथ-साथ कॉर्पोरेट ट्रेनर भी हैं । प्रहलाद पांडेय ने इंडिया अगेंस्ट करप्शन (IAC) से जुड़ने के लिए अपनी पढ़ाई तक छोड़ दी थी जिसका असल कारण आपको आगे पता चलेगा। इस साक्षात्कार में प्रहलाद जी ने मुखर हो कर सभी उत्तर के जवाब दिए और बहुत कुछ ऐसा भी बताया जो शायद कम लोग ही जानते हों।
प्रहलाद पांडेय से बातचीत का एक अंश:
शान्तनू: आप हमारे पाठकों को अपने विषय में कुछ बताएं?
नमस्कार! मेरा नाम प्रहलाद पांडेय है और मेरा जन्म सतना के राजापुर गांव में हुआ था। राजापुर सतना से 35 किलोमीटर दूर है। मैने अपनी प्रारंभिक शिक्षा जिला छिंदवाड़ा के दमुआ में पूरी की। उसके बाद मैंने 11वीं 12वीं की पढ़ाई नागौर से पूरी की, कॉलेज नागौद जो कि सतना जिले में है वहां पढ़ाई की। मैंने अपना बी.एड देवास से किया और देवास से बी.एड के बाद मैंने अवधेश प्रसाद सिंह विश्वविद्यालय रीवा से एम.ए इन बिज़नेस इकोनॉमिक्स किया। उसके बाद 2005 में मैंने UGC-Net परीक्षा को पास किया और अभी मैं मनोविज्ञान यानि साइकोलॉजी में एम.ए कर रहा हूँ।
शान्तनू: कॉलेज में आपकी किस विषय में अधिक रुचि रही है?
मेरी शुरू से ही अर्थशास्त्र में, भाषाओं में और मनोविज्ञान में रुचि रही है और राजनीति में जो लोक-नीति हैं उनमे ज़्यादा रुचि रही है। और इन सब मे जो सबसे ज़्यादा जिनके लिए मैं परेशान होता था वह थीं लोक-नीति से जुड़ीं शिकायतें और मैं उसी विषय पर मैं पढ़ता था।
शान्तनू: आपने कभी छात्र जीवन में राजनीति में भाग लिया था?
जिस समय मैं कॉलेज में पढ़ रहा था उस समय हमारे प्रदेश में शैक्षणिक स्थानों पर छात्र चुनाव प्रतिबंधित थे, जिस वजह से राजनीति में भाग लेने का कोई अवसर नही मिला और न ही मैं राजनीति में हिस्सा लेने की इच्छा रखता था। मैं एक मध्यम-वर्गीय परिवार से हूँ और हमारे परिवार में सबसे ज्यादा ध्यान दिया जाता था कि क्या तुम्हारी नौकरी लगेगी? तो मेरा ध्यान इस पर था कि पढ़ाई के बाद मेरी नौकरी लग जाए। परिवार के बड़े भी यही कहते थे कि ब्राह्मण हो और ब्राह्मण को तो वैसे भी कोई नौकरी नही मिलेगी क्योंकि आरक्षण है, जिस वजह से हम और डर जाते थे। 10वीं में अपेक्षा अनुसार गणित में अंक नहीं आए थे लेकिन मुझे 11वीं में आर्ट्स लेना था, मगर लोगों ने कहा कि पढ़ने वाले बच्चे गणित या साइंस पढ़ते हैं जिस वजह से मैंने बेमन से गणित ले लिया किन्तु एक साल बाद ही मैं आर्ट्स में स्विच हो गया।
एक बात ‘और’ कि 1996 में एक छोटी क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टी थी जिसका मुद्दा था ‘आरक्षण के खिलाफ’ उस पार्टी का शुरू में सदस्य रहा। एक-दो भाषण भी दिए थे किन्तु पढ़ाई पर मेरा अधिक ध्यान था जिस वजह से उसमे मेरी ज़्यादा भूमिका नहीं रही।
शान्तनू: आप लाइफ एंड लीडरशिप कोच हैं और आप कई छात्रों और युवाओं से भी मिलते हैं, तो सवाल यह है कि क्या आज एक युवा या छात्र सही दिशा में जा रहा है? और इन युवाओं में किन-किन बदलावों को आप देखना चाहेंगे?
अभी जब मैं बच्चों से मिलता हूँ, उनसे बाते करता हूँ, तो उनमे मैं मौलिक सोच यानि फंडामेंटल थिंकिंग की कमी पाता हूँ। वह एनालिटिकल नहीं हैं और उनमे सत्य को कहने की ताकत नहीं है, उनमे सही को सही कहने काबिलियत और कूबत दोनों की कमी है।
इन युवाओं को सबसे पहले अपनी प्राथमिकताएं तय करने की ज़रूरत है कि वह बनना क्या चाहते हैं? उनको अपने जीवन को कुछ मुकाम देने के लिए ‘एक दम’ तैयार हो जाना चाहिए, उनको जीवन के प्रति अनुशासन लाना चाहिए और उनमे सच्चाई बरक़रार रहनी चाहिए। जो वह चाहते हैं वह करें लेकिन कुछ समय राजनीति पर भी सोचने की ज़रूरत है। मैं जानता हूँ कि राजनीति के विषय में लोगों की बड़ी ख़राब धारणा है, कोई इसमें उतरना नहीं चाहता है और खासकर युवा यह कहते हैं कि राजनीति नहीं होनी चाहिए, ‘क्यों?’ क्योंकि यह ख़राब होती है। लेकिन उन्हें यह मूल ज्ञान पता होना चाहिए कि ‘राजनीति एक आवश्यक बुराई है’ आवश्यक क्यों है, यह हम सब जानते हैं क्योंकि सभी आवश्यक नीतियों को राजनीति तय करती है, जिस वजह से राजनीति हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा है। बुरा इस लिए है क्योंकि सत्ता के लिए संघर्ष करते समय सभी राजनेता अपने नैतिक मूल्यों को भूल जाते हैं, जिस वजह से यह एक दलदल है जिसमे कोई जाना नहीं चाहता। हम अपने घर का शौचालय साफ़ करते हैं, जिसमे शायद ही किसी का मन लगता हो लेकिन यह काम भी आवश्यक है ठीक उसी तरह हमें भी राजनीति के दलदल में उतरना पड़ेगा, उसका हिस्सा बनना पड़ेगा।
शान्तनू: आपने अन्ना आंदोलन से जुड़ने के लिए अपनी पढ़ाई छोड़ दी थी, तो उस समय ऐसा क्या संयोग बना कि आपको अपनी पढ़ाई छोड़ने जैसा कदम उठाना पड़ा?
देखिए! सही बात तो यह है कि पीएचडी जो मैं कर रहा था उसमे मेरा ज़्यादा मन भी नहीं लग रहा था और क्योंकि इंडिया अगेंस्ट करप्शन था तो मेरा पूरा ध्यान इस तरफ केंद्रित हो गया। मैंने सोचा कि पढ़ाई तो बाद में भी करलेंगे लेकिन उस समय यह असमंजस था कि यह आंदोलन दुबारा होगा या नहीं। इस वजह से मैंने इंडिया अगेंस्ट करप्शन को ज़्यादा तवज्जो दी। और ऐसा नहीं था कि मैंने सिर्फ आंदोलन से जुड़ने के लिए पढ़ाई को छोड़ा इसकी वजह यह भी है कि जो मैं पढ़ रहा था उसमे मेरा ज़्यादा मन नहीं लग रहा था।
शान्तनू: इंडिया अगेंस्ट करप्शन आंदोलन को आप सफल मानते हैं?
अगर हम ध्यान से पूरे आंदोलन का विश्लेषण करें या उसका कोस्ट बेनिफिट अनालिसिस करें तो यह आंदोलन असफल हुआ है, वह इसलिए क्योंकि जो इसकी कोस्ट यानि इस देश के लाखों युवा और समाज सेवी और समाजिक संगठन और देश के बाहर के लोगों ने इस आंदोलन को अपना पूरा समय दे दिया था, और सभी ने बहुत मेहनत से इस आंदोलन को खड़ा किया था। इस देश का पढ़ा लिखा तबका या जो इस देश की भलाई चाहता था लगभग सभी इस आंदोलन से जुड़ चुके थे। उन्होंने अपनी ऊर्जा दी, समय दिया, तन-मन-धन सब कुछ लगा दिया, लेकिन इस प्रकरण का जो परिणाम निकल कर आया वह बहुत कम था। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि कम से कम 1977 के बाद में यह एक पहला आंदोलन था जिसमे सभी लोग इकट्ठा हुए और आवाज़ उठाई। लेकिन जैसे 1977 में जनता पार्टी ने और हमारे नेताओं ने जयप्रकाश आंदोलन के नेतृत्व का हश्र किया था ठीक उसी तरह 2011 का जो इंडिया अगेंस्ट करप्शन आंदोलन था इसका भी हश्र वही हुआ, क्योंकि इसका कोई नतीजा नहीं निकला। लेकिन इस बात की तसल्ली है कि लोग खड़े होना सीख गए, परिणाम भी आवश्यक है मगर सकारात्मक लहजे से देखें तो यह थोड़ा सफल भी हुआ। लेकिन सभी पहलुओं का विश्लेषण करूँगा तो यह आंदोलन विफल रहा।
शान्तनू: अभी ऐसे कौन-कौन से मुद्दे है जिसके लिए हम सब को फिर एक-जुट होने की ज़रूरत है?
अभी तो बहुत सारे मुद्दें हैं, सबसे बड़ा मुद्दा तो यह है कि जो जनप्रतिनिधि और जो वास्तविक मालिक है इन दोनों के बीच में जो भेद है उसको पाटना बहुत ज़रूरी है। असली मालिक इस देश में जनता है और जो जनप्रतिनिधि है वह जनता की बातों को रखने वाले लोग हैं, लेकिन देश में हमने यह देखा है कि चाहे सरकार किसी की भी हो मगर कोई भी जनता की भावनाओं के अनुसार काम नहीं करता है। गेंद एक तरफ से दूसरी तरफ कूदती रहती है और हम तमाशबीन बने उसे देखते रहते हैं। मुद्दों पर वापस आते हुए यह कहूंगा कि राजनीति में निहित स्वार्थ नहीं होना चाहिए, वह साफ़-सुथरी होनी चाहिए और जो सभी राजनीतिक वर्ग हैं उनको मिलने वाले लाभ कम होने चाहिए। उदाहरण के तौर पर ग्राम पंचायत में सरपंच और पंच का चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवार को 10 वीं पास होना चाहिए, उनके दो से अधिक बच्चे नहीं होने चाहिए, उन पर कोई भी बैंक का कर्ज या कोई बिजली बिल या अन्य बिल बकाया नहीं होना चाहिए। जब इन सभी आवश्यकताओं को पूरा किया जाता है तभी वह यह चुनाव लड़ सकते हैं लेकिन विधायक और सांसद बनने के लिए ऐसी कोई भी आवश्यकताओं को पूरा करने की ज़रूरत नहीं है, लाखों का कर्जा है कोई दिक्कत नहीं, अंगूठाछाप हैं इस से भी कोई परेशानी नहीं आप एमएलए बन सकते हैं। इन सबने राजनीति को ऐसा मलाई वाला काम बना कर रखा है जिसमे सिर्फ और सिर्फ खुद का लाभ है। और आम आदमी के लिए इस में प्रवेश ही बंद कर दिया गया है। यही चीज़ हमने आम आदमी पार्टी के जरिए एक उम्मीद जगाई थी लोगों में कि आम आदमी भी राजनीति कर सकेगा और इसमें काबिल लोग जा सकेंगे, मगर वह उम्मीद भी धराशाही हो गई।
शान्तनू: अन्ना आंदोलन के अरविन्द केजरीवाल में और राजनीति वाले अरविन्द केजरीवाल में कितना बड़ा अंतर है?
देखिए! जो बाहर से देखने में अंतर पता चल रहा है वह तो जमीन-आसमान का फर्क है। अब भीतर से वह अन्ना आंदोलन के पहले से ही ऐसे थे उसके बारे में कहना मुश्किल है लेकिन आंदोलन वाले अरविन्द केजरीवाल में और राजनीति वाले अरविन्द केजरीवाल में बहुत बड़ा अंतर। इंडिया अगेंस्ट करप्शन में जो अरविन्द था, उस अरविन्द को हमने बहुत जमीन से जुड़ा व्यक्ति पाया, बहुत सहज और सरल, जो कहना है वह करना है वाला व्यक्तित्व रखने वाला पाया। लोग उनसे प्रेम करते थे, लेकिन राजनीति में प्रवेश करने के बाद में बहुत जल्दी ही हमने उनका दूसरा रूप देखा। मुझे याद है कि हम लोग दिल्ली विधानसभा में थे और पहली बैठक हो रही थी विधायकों की, तो मैं गया वहां और अरविन्द ने मुझसे कहा कि प्रहलाद! हमको जिताना है इस उम्मीदवार को, कैसे जिताना है तो साम-दाम-दंड-भेद जो इस्तेमाल करना पड़े मगर जिताना है। तो यह बात मुझे खटकी और मुझे लगा कि ऐसा कैसे हो सकता है, लेकिन मैंने सोचा कि कई बार लोगों का ऐसा मतलब होता नहीं है जैसा वह कहते हैं, लेकिन सचमुच में वह यही चाहते थे कि किसी तरह भी वह उम्मीदवार जीत जाए। और यही राजनीति दूसरी राजनीतिक पार्टियां भी कर रही हैं, तो इस लिहाज़ से आम आदमी पार्टी दूसरों से अलग नहीं है। शायद हम देश बदलने के जोश में उनके इस चरित्र को पढ़ नहीं पाए।
शान्तनू: आपको यह कब आभास हुआ कि यह पार्टी अपने सिद्धांतों से भटक रही है?
मैं आपके साथ तीन चार घटनाएं साझा करूँगा और उसमे सभी चीज़ों को बताऊंगा। पहला, 2013 में हमने मध्यप्रदेश की आम आदमी पार्टी की कमेटी बनाई थी जिसमें मैं प्रवक्ता था। अब दिल्ली और मध्यप्रदेश में विधानसभा के चुनाव एक साथ थे, मध्यप्रदेश की टीम ने अरविन्द से कहा कि हमलोग मध्यप्रदेश का चुनाव लड़ना चाहते हैं, आपलोग दिल्ली का चुनाव लड़िए और यह स्टेट कमेटी का फैसला था जिसको हमने जिला कमेटी से मिल कर लिया था। अरविन्द ने कहा नहीं! आपका यह फैसला हम अभी नहीं मानते हैं। जो स्वराज की अवधारणा थी उस में यह पहला प्रहार था। तो वह हमने बर्दाश्त कर लिया ऐसा नहीं था कि बुरा नहीं लगा लेकिन हमने सोचा कि अभी पार्टी नई-नई बनी है तो शायद रणनीति के तहत हमें स्वराज को अभी न मानना पड़े और पूरी ताकत दिल्ली में लगाई जाए। दूसरा मैंने आपको बता ही दिया था जब साम-दाम-दंड-भेद वाली घटना हुई।
तीसरा, दिल्ली में उत्तमनगर विधानसभा से देशराज राघव नाम के व्यक्ति को टिकट दिया गया था और देशराज राघव एक दागी उम्मीदवार था और वहां के जितने भी कार्यकर्ता थे उन सबने उसका विरोध किया था। जब इस विरोध को नहीं माना गया तब मुझे लगा कि यह गलत हो रहा है और मैंने भी विरोध किया और उसी समय आलाकमान को खत लिखा। लेकिन मुझे लगा कि एक बड़े उद्देश्य के लिए हमें इन छोटी-छोटी चीज़ों से समझौता करना चाहिए और फिर से मैंने इसको दरकिनार कर दिया।
चौथी घटना जो थी जो सबसे ज़्यादा चौंका देने वाली थी वह यह कि जब आम आदमी पार्टी का संविधान संशोधन हुआ, उस संशोधन में मूल बात यह थी कि जितने भी अधिकार नैशनल काउन्सिल को दिए गए थे वह सभी अधिकार उनसे लेकर राष्ट्रीय कार्यकारिणी को दे दिए गए और उनमे भी और दूसरे अधिकार थे वह सब अरविन्द केजरीवाल को दे दिए गए। यह सब स्वराज के अवधारणा के खिलाफ काम हो रहा था। यह सब फैसले बिना विचार-विमर्श किए लिए गए थे। और इसका मुझ पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा और मुझे बहुत दुःख हुआ, मैंने चिठ्ठी भी लिखा मगर उनका कोई जवाब नहीं आया, रही बात छोड़ने की या मेरे लिए काम करना कब मुश्किल हो गया तो, यह मेरे लिए कभी भी मुश्किल नहीं रहा है कि मैं पार्टी के साथ में काम न करूँ। हर बार मैंने यह प्रयास किया है कि पार्टी के साथ में काम करूँ, वह इसलिए क्योंकि मैं जानता था कि राजनीति एक दलदल है जहाँ पर यह सभी चीज़े होना तय हैं, क्योंकि यहाँ सत्ता के लिए संघर्ष होता है। और ईमानदार लोग राजनीति में इसलिए नहीं रह पाते हैं क्योंकि उन्हें यह गन्दगी बर्दाश्त नहीं होती है।
मैं दो तरह से राजनीति में बना रह सकता था कि मैं सिर्फ हाँ कहने वाला कार्यकर्ता बनकर रह जाऊं, इसका मुझे अच्छा अवसर भी मिला था। मुझे याद है कि 2013 मैं, अरविन्द और मनीष जब एक ही गाड़ी में थे तो अरविन्द ने मुझसे पुछा कि “प्रहलाद तुम्हारा खर्च कैसे चल रहा है? तुमने तो नौकरी छोड़ दी है।” मैंने कहा कि “मेरे पास कुछ पुरानी सेविंग्स हैं और भाइयों का साथ है, तो चल रहा है और हमें भी ज़िन्दगी भर थोड़ी राजनीति करनी है साल दो-साल बाद सब ख़त्म हो जाएगा, फिर नौकरी कर लेंगें।” तो अरविन्द ने बोलै कि “हम तुम्हारे लिए स्टाइपंड की व्यवस्था कर देते हैं, महीने-महीने पर पैसा तुम्हे मिल जाएगा जिससे तुम अपने खर्चे निकाल लेना।” तो मैंने अरविन्द से कहा था कि “अरविन्द! आप मेरे नेता हैं आप मेरे लिए स्टाइपंड की व्यवस्था कर देंगे। मगर मैं मध्यप्रदेश का नेता हूँ, मैं अपने कार्यकर्ताओं के लिए कैसे स्टाइपंड की व्यवस्था करूँगा।” ऐसी ही दो-तीन घटनाएं मेरी अरविन्द के साथ हुईं और अरविन्द को समझ आ गया कि यह व्यक्ति मेरे साथ काम करने वाला नहीं है और न ही इन्होने मुझे ज़्यादा सहयोग किया, अगर वह लीडर बनाना चाहते तो मैं और मेरे जैसे सैकड़ों अच्छा नेता बनने का दम रखते हैं। पर उनको हाँ कहने वाले लोग चाहिए थे और अभी पार्टी में जितने भी लोग हैं वह सभी ‘yes’ वाले हैं। बाकि जिनका अपना मत था और जिनमें सच्चाई थी उनमे से कोई भी नहीं बचा है।
शान्तनू: जिन्होंने आम आदमी पार्टी को खड़ा किया, उसे मजबूत बनाया क्या उनके साथ धोखा हुआ है?
निश्चित रूप से, यह धोखा सिर्फ उन लोगों के साथ में नहीं हुआ है जिन्होंने ने इसको खड़ा किया, मगर यह धोखा उन सभी कार्यकर्ता जो बाहर से सपोर्ट कर रहे थे उनके साथ हुआ है और उन सब के साथ भी जिन्होंने इस आंदोलन को देखा है। धोखा इसको इसलिए कहना जरुरी है क्योंकि कई बार परिणाम आपके हाथ में नही होते हैं।
शान्तनू: जब आप आम आदमी पार्टी से बाहर निकले तब आपको किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा?
मैंने आम आदमी पार्टी नहीं छोड़ी है, मैं पार्टी कैसे छोड़ सकता हूँ। पार्टी को मैं अयोग्य लगा क्योंकि वह मेरे साथ नहीं काम कर सकते थे, जो सही बोलता हो या सच का साथ देता हो इस वजह से मुझे पार्टी से निकाल दिया गया। मैं छोड़ने वालों में से नहीं हूँ, बरहाल मुझे जब निकाला गया तो मैंने उन्हें चिठ्ठी लिखा, उनसे बात किया लेकिन जब एक कमरे में 99 बईमान हो जाएंगे तो एक सच्चे आदमी को अंदर घुसने ही नहीं देंगे, अपनी बात नहीं कहने देंगे तो क्या कर सकते हैं?
रही बात अब कठिनाइयों का सामना करने की तो निश्चित रूप से 3 साल मेरे निकल चुके थे, पीएचडी भी मैं नहीं कर पाया था। मैं जिस कॉलेज में पढ़ाता था वहां पर ताल-मेल नहीं बैठ पा रहा जिस वजह से आर्थिक समस्याएं भी आईं और यह लगा कि हमने चार पांच साल बेकार कर दिए हैं। अब नए सिरे से सब कुछ शुरू करना पड़ेगा, और मेरे जैसे और भी कई लोगों को परेशानी हुई।
शान्तनू: आप मुनीश रायज़ादा जी से कब मिले? और ‘ट्रांसपेरेंसी-पारदर्शिता’ में आपका अनुभव कैसा रहा?
मुनीश भाई से मुलाकात 2012-13 में हुई थी। मुनीश भाई और हम लोग दिल्ली के ही ऑफिस में बैठते थे। मुनीश भाई से मिलकर बहुत अच्छा लगा। पहले भी उनसे मैं प्रभावित था और आज भी हूँ।
‘ट्रांसपेरेंसी-पारदर्शिता’ वेब सीरीज़ MX-Player पर मुफ्त में देखने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- https://www.mxplayer.in/show/watch-transparency-pardarshita-series-online-f377655abfeb0e12c6512046a5835ce1
ट्रांसपेरेंसी में मेरा अनुभव अच्छा रहा, जब मैंने यह वेब सीरीज़ देखी तो बहुत सी ऐसी चीजें थीं जो मुझे भी नहीं मालूम थीं। और इसे देखने के बाद में मुझे लगा कि यह फिल्म जरूर आना चाहिए। लोगों को देखना चाहिए और उससे सबक लेना चाहिए क्योंकि अगली बार जब कभी इस तरह का आंदोलन खड़ा हो तो फिर कोई ठगने वाला व्यक्ति न मिलें।
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शान्तनू: अंत में हमारे पाठकों और युवाओं के लिए कोई संदेश?
मेरा सभी पाठकों के लिए यही संदेश है कि देश का हर व्यक्ति अगर अपना सोचने की बजाय हम सब का सोचे तो इस देश में बहुत बड़ा बदलाव आ सकता है। उदाहरण के रूप में मेरे साथ घटित एक घटना को आपके साथ साझा करता हूँ, तो मैं सतना से नागौर ‘बस’ से जा रहा था उसका किराया 17 रुपये लगा करता था। लेकिन बस वाले ने मुझ से 20 रुपये मांगे, तो मैंने उससे कहा कि “सतना से नागौर का 17 रूपये किराया लगता और मेरे पास किराया सूची भी है।” लेकिन वह बस वाला नहीं माना और उसने मुझे तरह-तरह से लज्जित किया। आखिर में जब नागौर पहुंचा तो मुझे उस गाड़ी को थाने में रुकवाना पड़ा, शिकायत की बस तो जा चुकी थी मगर फिर भी मैं आधे घंटे तक थाने में खड़ा रहा। जब टीआई यानि सब-इंस्पेक्टर आए और मेरा एप्लीकेशन देखा तो उन्होंने मुझे पहले ठीक ढंग से देखा और उन्होंने कहा कि “पांडेय जी! आप करते क्या हो?” तो मैंने कहा “सर! मैं इकोनॉमिक्स का प्रोफेसर हूँ।” उन्होंने कहा “आप कैसे प्रोफेसर हैं जो तीन रुपए के लिए आधे घंटे से खड़े हैं, इसकी इकोनॉमिक्स मुझे समझाइए?” तब मैंने कहा था कि “मैं आधे घंटे या 1 घंटे और परेशान हो जाऊंगा या शायद दो दिन और परेशान हो जाऊंगा और इसके कारण जो कार्रवाई उस बस वाले पर होगी उसके वजह से बसों में किराया सूची लगेगी और न जाने कितने लोगों को मनमाने किराए से छुटकारा मिलेगा।”
पाठकों और युवाओं के लिए यही सन्देश है कि अपने बारे सोचने से हटकर हमे समाज और देश के बारे में सोचने की ज़रूरत है।