काश यूँ हुआ होता : कहानी जयनाथ मिसरा की (भाग-7)

यह कहानी ज़ख़्मी आँखों से रिश्तों को कुरेदती हुई इंसानी दौड़-धूप में आह भरती है। हाज़िर है जयनाथ मिसरा के संघर्ष की तमाम दास्तान।

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काश यूँ हुआ होता kaash yun hua hota जयनाथ मिसरा jainath Misra

सैल्यूट टू यू सर जी”

कैलाश की मौत से लगभग साल भर पहले 1975 में मैरी ने एक बच्ची को जन्म दिया था। उसका नाम शीला रखा गया। शीला की नीली आँखों में जयनाथ मिसरा और मैरी का पूरा ब्रम्हांड समा जा रहा था। शीला का चेहरा उसकी अपनी माँ का दर्पण था। और उसका नाम सुशीला के कमल चरणों की पावन महक। घर की बगिया में इस नन्हीं कली के आ जाने से दीवारों के हर ज़र्रे में पंछियों की चहक गूंजने लगी। खिलौनों की उछल-कूद होने लगी। कहकशां की वादियों में नए ख्वाब बुने जाने लगे। उन्हीं वादियों में समय बीतने लगा था। अगर कभी मैरी काम पर चली जाया करती तो जयनाथ घर पर रहता। पिता के स्नेह से वंचित जयनाथ अपनी बेटी को उसके हर कण से भर देना चाहता था।   

देखते ही देखते शीला बड़ी होने लगी। पढ़ने में छूरी की धार से भी तेज़। उसकी लगन उसे हमेशा कक्षा में अव्वल रखती। जयनाथ को अपनी बेटी की काबिलियत पर सुई भर शंका ना थी। मिसाल के तौर पर एक बार उसने एक कंपनी में शीला के अंकों को लेकर दाव खेल दिया। शीला दसवीं में थी। जयनाथ को इस बात का पूरा यकीन था कि शीला हर विषय में ‘A’ ग्रेड लायेगी। इसी वजह से उसने कम्पनी में कॉल कर के इस बात पर पैसे लगा दिए। उस साल स्पेन में ओलंपिक्स हो रहे थे। शीला का रिजल्ट आया। उसके दसों विषय में अव्वल नंबर थे। जयनाथ शर्त जीत गया। उसे 500 पाउंड का मुनाफा हुआ। सौ पाउंड उसने शीला को दे दिए। यह खबर अखबारों में छप गई। कुछ न्यूज़ चैनल्स में भी इसकी चर्चा रही।

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अपनी नौकरी के पहले दिन के अवसर पर-शीला मिसरा।

आगे चल कर शीला ने डरहम यूनिवर्सिटी से वकालत की डिग्री हासिल की। जिसके बाद वो एक बड़ी कंपनी का हिस्सा हुई। न्यू यॉर्क शिफ्ट होने से पहले यूनिवर्सिटी में ही शीला और ग्राहम का मिलना हुआ था। देखते ही देखते यह दोनों प्रेम बगुले शादी के बंधन में बंध गए। ग्राहम, आईटी कंसलटेंट के पेशे में था। जयनाथ और मैरी हर साल इनसे मिलने न्यू यॉर्क आया करते थे। लेकिन कुछ ही सालों में शीला और उसके पति ने लंदन में बसने का मन बना लिया। शीला यहाँ बार्कलेज बैंक में डायरेक्टर के ओहदे पर थी। उसकी कमाई तो मानों आसमान की बुलंदी को छूती ही जा रही थी।

दूसरी तरफ जयनाथ कॉलेज ऑफ़ बिल्डिंग में लेक्चरर के पद से रिटायर होने के बाद मैरी के साथ इंग्लैंड के छोटे से गाँव में जाकर रहने लगा था। मैरी ने भी एजुकेशन मिनिस्टर की सीनियर सेक्रेटरी के तौर पर रिटायरमेंट ली। उस समय तक लंदन से पोस्ट ऑफिस महकमा खत्म हो चुका था। सांसारिक चिंताओं से दूर…दोनों का समय अपने नए घर में सुकून के पलों को चुगते हुए बीत रहा था।

रिटायरमेंट के बाद आए खालीपन को जयनाथ अपने अतीत से भरने की कोशिश में लगा था। उसका ध्यान रह-रह कर इंडिया बन चुके भारत की ओर खींचा चला जा रहा था। उसके भीतर बुलंदशहर का जयनाथ कहीं छिप के बैठा था। इस जयनाथ ने हुल्की तब मारी जब दिल्ली में अन्ना हज़ारे का नाम मंचों पर डंके की चोट पर था। घर-घर आम आदमी पार्टी की एक तरफ़ा लहर चल रही थी। सिर्फ देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी इस पार्टी ने अपनी साख जमा ली थी।

तभी शीला ने इन दोनों को अपने पास रहने को बुला लिया। शीला चंद महीनों से गर्भवती थी। ऐसे समय में जयनाथ और मैरी का उसके पास होना सही फैसला था। दोनों अपनी बेटी के साथ रहने लगे। शीला ने अपने पहले बच्चे को जन्म दिया। कुछ सालों बाद शीला अपने नए घर में शिफ्ट हो गई।

कहानी अब तक :

काश यूँ हुआ होता : कहानी जयनाथ मिसरा की (भाग-1)

काश यूँ हुआ होता : कहानी जयनाथ मिसरा की (भाग-2)

काश यूँ हुआ होता : कहानी जयनाथ मिसरा की (भाग-3)

काश यूँ हुआ होता : कहानी जयनाथ मिसरा की (भाग-4)

काश यूँ हुआ होता : कहानी जयनाथ मिसरा की (भाग-5)

काश यूँ हुआ होता : कहानी जयनाथ मिसरा की (भाग-6)

उस समय लंदन में ‘आप’ के समर्थक बढ़ रहे थे। गलियों में पार्टी की रैलियां निकलने लगीं। जयनाथ यह सब देख के खुद को रोक ना पाया। वो पार्टी के विचारों और उसके स्वराज के मक़सद से बहुत प्रभावित था। इसलिए उसने लंदन में आम आदमी पार्टी सर्पोटर ग्रुप को जॉइन कर लिया। ग्रुप का हेडक्वार्टर लंदन में ही था। ग्रुप मीटिंग में सभी ने जयनाथ के जज़्बे की सराहना की।

राजनीति के मैदान में जयनाथ का यह पहला कदम नहीं था। उसने तो आज़ादी के वक़्त ही इस मिट्टी में पांव धर लिए थे। यह तब हुआ जब सुरेश के आलसी दिमाग ने आज़ाद भारत में अपना योगदान देने की सोची। अंग्रेज़ों से मुक्त होने के बाद देश में पहली बार चुनाव होने वाले थे। कांग्रेस पार्टी की लात तो चुनावी मिट्टी में जमी ही हुई थी। मगर सुरेश ने सोशलिस्ट पार्टी को समर्थन देने की सोची। इस तरह से सोशलिस्ट पार्टी के लिए प्रचार का काम मिसरा परिवार के घर से शुरू हुआ। पार्टी के लिए पोस्टर्स बनाने का काम था। पांच तरह के अलग-अलग पोस्टर्स बनने थे। ऐसे कर के कुल पच्चास पोस्टर्स। एक तरह के दस पोस्टर्स। इस काम के लिए जयनाथ भी आगे आया। दस गुना लगाम के विरोध में बनाये पोस्टर को उठा कर उसमें रंग भरने लगा। पोस्टर में एक किसान ने दस भारी बोरों को अपनी पीठ पर लाद रखा था। ऐसे ही सुरेश जब भी किसी पार्टी के साथ जुड़ता, जयनाथ उसके साथ हो लेता। और अब बचपन का जोश एक बार फिर से कांपते हाथों की नसें पकड़ कर खून में उतरने लगा था।

2013 विधान सभा चुनाव के लिए दिल्ली में पार्टी ने कैंडिडेट्स के नाम जारी कर दिए थे। जयनाथ ने ग्रेटर कैलाश से खड़े हो रहे सौरभ भारद्वाज के लिए प्रचार करने का फैसला किया। उसने ग्रुप की सहायता से भारद्वाज से सम्पर्क साधा। सौरभ को यह समझ ना आया कि कोई लंदन से उसके लिए भारत क्यों आना चाहता है। फ़ोन पर इन दोनों की बात का कोई एक छोर हाथ नहीं लगा, उसने कुछ कहा, जयनाथ ने कुछ, निष्कर्ष – सन्नाटा। लेकिन इसके बावजूद जयनाथ ने ग्रुप को बिना बताये ही दिल्ली की टिकट बुक कर ली। निकलने से कुछ दिन पहले उसने अपनी टीम के लोगों को इत्तिला किया। उसके इस फैसले से सभी हैरान थे। लेकिन इसके बावजूद सब ने 74 साल के इस नौजवान को गले लगा कर विदा किया। ग्रुप के सोशल मीडिया हैंडल्स को राज गिल सम्भाला करता था। उसने लंदन एयरपोर्ट पर जयनाथ की फोटो क्लिक कर ली। 19 सितम्बर 2013 को जयनाथ ने दिल्ली के लिए उड़ान भरी। राज ने क्लिक की हुई फोटो को सोशल मीडिया पर अपलोड कर दिया। जो देखते-ही-देखते वायरल हो गई। 

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लंदन एयरपोर्ट पर राज गिल द्वारा क्लिक की हुई फोटो।

उसने लिखा – “Jai Nath Misra ji, a 74 yrs Jawan with full of desh bhakti leaving for Delhi on the call of Bharat Maa to participate in AAP movement to change politics, to change India Vision…! Salute to u sir ji..!!”

दिल्ली एयरपोर्ट पर संदीप बिष्ट पहले से ही जयनाथ का इंतज़ार कर रहे थे। संदीप बिष्ट लंदन के आप ग्रुप का हिस्सा थे और कुछ महीने पहले ही दिल्ली पहुंचे थे। एयरपोर्ट से दोनों सीधा हनुमान रोड पर आम आदमी पार्टी के ऑफिस गए। वहां जयनाथ की मुलाक़ात संजय सिंह से हुई। संजय सिंह के कहने पर जयनाथ वजीरपुर में पार्टी का प्रचार-प्रसार करने लगा। वहां जाने के लिए जयनाथ दिल्ली मेट्रो से ही सफर किया करता। रहने के लिए उसने करोल बाग़ में ही तीन महीनों के लिए एक कमरा बुक कर लिया था। दिल्ली आए उसे अभी तीन से चार दिन ही हुए थी कि उसकी मुलाक़ात अरविन्द केजरीवाल से हुई। वहां पहली बार जयनाथ के मन को केजरीवाल का रंग-ढंग थोड़ा खटका मगर उसने इस ख्याल को दरकिनार किया।

इसके कुछ दिनों बाद ही जयनाथ का मिलना शिकागो से आए एन.आर.आई डॉ मुनीश रायज़ादा से हुआ। शिकागो में अपनी नौकरी और परिवार से दूर मुनीश यहाँ भारत में आम आदमी पार्टी के लिए काम कर रहा था। खबरों में उसके बारे में चर्चा थी। उन्हीं खबरों से जयनाथ ने मुनीश के बारे में जाना। और उससे व्यक्तिगत रूप से मिल कर अत्यंत प्रोत्साहित हुआ। इन दोनों ने साथ मिल कर भारद्वाज के लिए बढ़-चढ़ कर काम किया। मुनीश के आदेश पर जयनाथ छोटे-बड़े इलाकों में जाकर काम किया करता। उसकी लगन और समर्पण ने पार्टी में उसकी पहचान बढ़ा दी थी। जयनाथ ने कुल आठ विधानसभा विधायकों के लिए काम किया था। ना कुछ पाने का मोह, ना कुछ छीनने की मंशा। वो तो बस पाक-साफ़ इरादे से अपने देश के साथ खड़ा था। देखते ही देखते तीन महीने कब बीत गए, खबर ही ना पड़ी। इन तीन महीनों के सफर में जयनाथ ने भारतीय समाज को बड़े करीब से देखा। गाँव-कस्बों को समझने की कोशिश की। उसके इन तजुर्बों में शामिल था मुनीश रायज़ादा का साथ, उनका भरोसा और उनकी दोस्ती।

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जयनाथ ने छोटे-बड़े इलाकों में जाकर पार्टी का प्रचार किया था।

कुछ इन्हीं यादों के साथ जयनाथ लंदन लौटने से पहले अपनी पत्नी से गोवा में मिला। उसने मैरी से गोवा आने को पहले ही कह दिया था। भारत में मैरी की यह पसंदीदा जगह थी। गोवा की आब-ओ-हवा में कुछ रोज़ रहने के बाद दोनों अपने वतन लौट गए।

इससे पहले भी जयनाथ और मैरी कई बार भारत भ्रमण कर चुके थे। दोनों ने देश-दुनिया के कई कोनों का सफर एक साथ किया था। लेकिन रिटायरमेंट के पांच साल बाद जयनाथ का भारत अकेले आने का एक बड़ा ही ख़ास कारण रहा था। जिसके लिए उसने अपनी बहन दया से बात की थी। दया के बेटे की जान पहचान अच्छी थी जिसकी वजह से जयनाथ का यह काम बन गया। उसी ख़ास काम के लिए जयनाथ भारत में तीन महीने रुका था। उस समय वो अपनी बहन दया के घर ठहरा था। दया का घर सैनिक फार्म में है।

असल में जयनाथ का भारत में टीचिंग करने का बड़ा मन था। इसी नाते वो वसंत कुंज स्थित वसंत वैली स्कूल में बच्चों को बतौर अध्यापक पढ़ाने लगा। वो वहां के बच्चों को गणित पढ़ाया करता था। जयनाथ को लगा कि यहाँ के लोग विदेश और भारतीय शिक्षा के बीच के अंतर के विषय में उससे ज़रूर पूछेंगे। इसी मकसद को लेकर वो यहाँ आया था। लेकिन किसी ने इस ओर अपनी उत्सुकता नहीं दिखाई। उसे यह भी लगा कि उसकी अंग्रेज़ी ज़बान वहां के लोगों पर भारी पड़ रही है। वहां के तौर तरीकों में ढलना जयनाथ के लिए तनीक मुश्किल रहा। लेकिन इसके बावजूद उसने अपने तीन महीने पूरी निष्ठा के साथ पूरे किये।

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काश यूँ हुआ होता : कहानी जयनाथ मिसरा की (भाग-5)

काश यूँ हुआ होता : कहानी जयनाथ मिसरा की (भाग-6)

जयनाथ की इस सेवा भावना की बहुत बड़ी प्रेरणा उसकी पत्नी मैरी रही है। मैरी के आते ही मानों उसके जीवन में सब कुछ ठीक होने लगा। सब कुछ शांत होने लगा। सालों से भटक रहे जयनाथ को सुकून क्या है, यह समझ आने लगा। मैरी वो थी जिसने हताश पड़े जयनाथ को प्रेम से आलिंगन दिया। मैरी वो थी जिसने रिश्तों के काले जंगल में जयनाथ का हाथ थामा। पर यह हाथ भी 21 मार्च 2014 को सदा के लिए जयनाथ को छोड़ गया …

अपनों के यूँ चले जाने के ग़म को आज तक भला कौन अभिव्यक्त कर पाया है। लेकिन जयनाथ ने फिर भी अपने प्रेम को ढाल बना कर मैरी के अंतिम संस्कार पर कहा –

“भारत में दो देवियाँ हैं; लक्ष्मी और सरस्वती। मेरे लिए मैरी दोनों है। मेरी लक्ष्मी भी और मेरी सरस्वती भी।”

घर से एक औरत के चले जाने के बाद दूसरी औरत ने जवाबदेही का जिम्मा उठाया। शीला अपने पिता के जीवन में आई शून्यता को भर तो नहीं सकती थी लेकिन उनके उदास मन को पुनः जीवंत करने की कोशिश में लग गई। उसने जयनाथ को कहीं घूमने जाने का सुझाव दिया। वो जानती थी कि उसके पिता कूली क्लास में सफर कर लंदन आए थे इसलिए उसने इस बार जयनाथ को क्रूज़ जहाज की सैर के लिए प्रेरित किया। इस बार जयनाथ ने ज़ैंडम क्रूज शिप के सबसे ऊंचे डेक पर अपना कमरा बुक किया। यह क्रूज अर्जेंटीना से शुरू हो कर लेटिन अमेरिका के देशों से गुज़रा। उस समय सब कुछ ऐसा था मानों यह दुनिया जयनाथ का हर द्वंद्व, उसकी हर पीड़ा का मोल चुका रही हो। समय का यह कैसा चक्र है। जिस जयनाथ को जहाज के सफर के लिए अपनी किताबें और माँ के कंगन बेचने पड़े थे आज वही जयनाथ जहाज के सबसे ऊपर खड़ा हो कर जीत का बिगुल बजा रहा था। लेकिन इस जीत में भी मैरी के ना होने का अफ़सोस था, उसकी कमी थी !

सुशीला के बाद मैरी ही थी जिसने जयनाथ को उसके सिद्धांतों से भटकने से हमेशा रोका। उसी अटलता ने जयनाथ को एक बार फिर से भारत की ओर रुख करने पर मजबूर कर दिया था। जिसकी मिसाल बना साल 2016 –

इस साल उस पार्टी के खिलाफ सत्याग्रह छेड़ा गया जिसने जून 2016 में ऑनलाइन पोर्टल से अपनी डोनेशन लिस्ट ही हटा डाली। जिस पार्टी ने 2015 में दिल्ली की 70 में से 67 सीटों पर जीत दर्ज की थी। यह पार्टी अपने तीन मूल सिद्धांतों के  साथ सत्ता में आई थी। पहला था स्वराज, दूसरा आंतरिक लोकपाल और तीसरा था चंदे की पारदर्शिता।

लेकिन अपने ही संकल्पों से लिया उनका यू-टर्न कई लोगों को निराशा की खाई में ढकेल गया। उन्हीं लोगों में से थे डॉ मुनीश रायज़ादा और जयनाथ मिसरा। रायज़ादा शिकागो से आम आदमी पार्टी पर पैनी नज़र रख रहा था। ख़ास कर पार्टी की डोनेशन लिस्ट पर। और जैसे ही पार्टी ने राजनीतिक बाज़ियां खेलनी शुरू की तभी मुनीश ने पार्टी के खिलाफ बगावत छेड़ दी। इस धर्म युद्ध में उसके साथ 77 साल का जयनाथ भी खड़ा था।

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वाघा बॉर्डर पर जयनाथ मिसरा और डॉ मुनीश रायज़ादा।

2017 में पंजाब विधानसभा चुनाव होने वाले थे। मुनीश ने सोचा की क्यों ना पहले पंजाब पहुंच कर ही चंदा बंद सत्याग्रह के शोर से लोगों को नींद से जगाया जाए। चंदा बंद सत्याग्रह जनता के सामने आम आदमी पार्टी की पोल खोलने वाली मुहिम थी। इसी नाते मुनीश और जयनाथ दोनों ही अमृतसर पहुंच गए। इससे पहले यह दोनों होशियारपुर में कुछ रोज़ ठहरे थे। वो हड्डियों को जमा देने वाली दिसंबर की कड़ाके की ठण्ड थी। दोनों अमृतसर की गलियों में चंदे की पारदर्शिता को लेकर लोगों को सतर्क करने में लगे थे। जनता के मन के रास्ते पर फैले कोहरे को सत्याग्रह की अग्नि से रौशनी दिखाई जा रही थी। लोगों को समझाना आसान ना था। लेकिन इनकी शपथ भी कोई शीश महल ना थी जो मामूली पत्थर की चोटों से चटक जाती। मुहिम की तर्ज़ पर ही जयनाथ की मुलाक़ात अन्ना हज़ारे से भी हुई जिनके लिए पार्टी का यूँ रंग बदलना पीठ में छूरी दागने जैसा था!

यूँ तो छल-कपट सदा ही ठेस करता है लेकिन अपनों से मिला छल मार्मिक है! यही पीड़ा जयनाथ और मुनीश की आँखों में मुखरित थी।  

तभी तो अमृतसर के बाद इन लोगों ने दिल्ली का दौरा भी किया। वहाँ सी.पी. में गेट नंबर सात के बाहर खड़े हो कर  इन्होंने अपना तम्बू गाड़ दिया। दिल्ली में इन्हें अमृतसर से अधिक सहयोग मिल रहा था। लोग इनकी बातों को समझ रहे थे। इनकी बातों पर खुद की प्रक्रिया दे रहे थे। दिल्ली का अनुभव, पंजाब से अलग था। वहां अपना कैम्पेन करने के बाद यह सभी अपनी अपनी जगह आ गए। जयनाथ लंदन लौट आया…मुनीश शिकागो।

इन्साफ की उसी लड़ाई को डॉ मुनीश रायज़ादा ने कभी ना मिटने वाला चेहरा दे दिया है; ‘ट्रांसपेरेंसी : पारदर्शिता’ यह डॉक्यूमेंट्री आज लोगों के बीच आम आदमी पार्टी के हर राज़ से पर्दा उठा रही है। राजनीतिक मूल्यों पर बनी यह डॉक्यूमेंट्री अपने आप में एक नई पहल है। इस पहल में भी जयनाथ का योगदान रहा है। डॉक्यूमेंट्री के दूसरे एपिसोड में जयनाथ ने पार्टी को लेकर अपने स्पष्ट विचार रखे हैं। उसने यह भी कहा कि, ” मेरी औकात जो यहाँ पर है, वो डिपेंड करती है भारत की स्थिति पर…”- ट्रांसपेरेंसी : पारदर्शिता MX Player पर निशुल्क उपलब्ध है।

यानी यह तो मानना ही पड़ेगा कि भले ही भारत छोड़े जयनाथ को लगभग साठ साल हो चुके हैं लेकिन आज भी उसके भीतर भारत ज़िंदा है और उसकी अंतिम सांस तक भारत उसके हर कण में ज़िंदा रहेगा।

और शायद उसके बाद भी…उसके नैतिक मूल्य सूरज का प्रकाश बनेंगे क्योंकि शीला भी उसी की राह पर चल निकली है। 2017 में शीला ने अपनी नौकरी छोड़ कर काउंसलर पद के लिए इलेक्शन लड़ा था। जीत के बाद वो लेबर पार्टी का हिस्सा हुई। उसने यह नौकरी तब छोड़ी जब वो लाखों में कमा रही थी। और बतौर समाज सेविका उसकी आमदनी कुछ हज़ार रुपए है। उसके भीतर अपने पिता की ही तरह समाज के लिए खुद को समर्पित करने की उदारता है। उसकी सेवा भावना अपने पिता की ओर भी बिलकुल अचूक है। वो सप्ताह के अंत में अपने तीनों बच्चों के साथ जयनाथ से मिलने चली आती है। जयनाथ अपनी बेटी, पोते-पोतियों और दामाद के साथ समय बिताता हुआ खुश है, संतुष्ट है! हाँ बस एक कमी है, एक खालीपन है …!

“मेरी उम्र चौरासी साल की हो चुकी है। मैं अपना समय अपने परिवार के साथ हंसी-ख़ुशी बिता रहा हूँ। मुझे याद है जब मैरी ज़िंदा थी तब हमने कई देशों की सैर की।

आई मिस हर

जयनाथ मिसरा

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